________________
कुवलयमालाकहा का साहित्यिक स्वरूप पिहल-णियंब-समंथर-उरुं ऊरु-भरेण सुसोहिय-गमणं ।। । गर्मण-विराविय-णेउर-कडयं णेउर-कडय-सुसोहिय-चलणं ॥ १४.२६, २६
तथा बाण-खेव-मेत्त-संठिय-महागामु। गामोयर-पय-णिक्खेव-मत्त संठिय-णिरंतर-धवलहरु। धवलहर-पुरोहड-संठिय-वणुज्जाणु। वणुज्जाण-मझ. फलिय-फणस-णालिएरी-वणु। णालिएरी-वण-वलग्ग-पूयफली-तरुयरु । तरुयरारूढ-णायवल्ली-लया-वणु। वणोत्थइयासेस-वण-गहणु । वण-गहणणिरुद्ध-दिणयर-कर-पब्भारो यत्ति । १४९-६-६
इत्यादि अनेक अलंकार कुवलयमालाकहा में प्रयुक्त हुए हैं। छन्द-योजना
कुवलयमालाकहा के पद्यभाग में प्रायः गाथा छन्द का प्रयोग हुआ है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में ४१८० गाथाएँ हैं, जिनमें इन ३६ छन्दों का प्रयोग हुआ है।
अधिकाक्षरा (२५.३०), अनुष्टुप (१२६.२६ एवं अन्यत्र), अवलम्बक (९४.११), अवस्कन्धक (३२.२९,९.९), इन्द्रवज्रा (४३.१८), उद्गीति (२६.१८) गलीतक (४.२८, ४.३१), गीति (१४.१५), गीतिका (२.८), चर्चरी (४.२७), चारु (१०.७), चित्तक (२८.१९), दण्डक (१८.११), दोहक (४७.६), द्विपथक (५९.५), द्विपदी (३१.३०, ४१.३३), नाराच (१५४.१२), पंचचामर (२४.२०), पंचपदी (६३.१८), प्रमाणिका (१५४.१२), मात्रासमक (१८.१९), ललिता (३३.१७), विपुला (२९.१३ आदि), शार्दूलविक्रीडित (१०३.१७), संकुलिक (१४.२६), स्कन्धक (१५२.६), सुमना (२.७), हरिणीकुल (२३५.१६), जम्मेहिका (१०.७) आदि ।
इन सभी छन्दों के स्वरूप आदि पर विशेष प्रकाश डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपने इण्ट्रोडक्शन, पृ० ८५ एवं नोट्स में डाला है। कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जिनके छन्दों के स्वरूप का पता नहीं चलता। वे इस प्रकार हैं :
तहे सो वि वरउ किं कुणउ अण्णहो ज्जि कस्सइ वियारु । खलो घई सई जे बहु-वियार-भंगि-परियल्लउ त्ति ।-६.६ खर-पवणाइद्धं विसम पत्तं परिभमइ गिरि-णिउंजम्मि । इय पाव-पवण-परिहटियो वि जीवो परिब्भमई ॥ ३०.२७ सुक्कोदय-तणु-खंजण-कडुयालय-बलिय व्व सा सुहय । तुह सूर-गोत्त-किरणेहिं ताविया मरइ व फुडती ॥ २३६.१२
'इनके अतिरिक्त कुव० में ६.१७, १२.२१, ३१.२६, ५४.८, २२७.११, आदि भी ऐसी ही गाथाएँ हैं जिनके छन्दों को निश्चित करना कठिन है। छन्दों की उक्त बहुलता कुव० की काव्यात्मक सुषमा की परिचायक है। कुव० रस