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चित्रकला १२. हाथ में पुस्तक लिए हुए (२९) । १३. बिल में प्रवेश करते हुए-विलम्मि पविसंतया लिहिया (२६) । १४. मन्त्रसाधना करते हुए (३१) । १५. देवी के चरणों में बैठे हुए (१६२.१)। १६. पर्वत की चोटी पर बैठे हुए (१६२.२) । १७. अस्थिमय पंजरित शरीरवाले (१६२.३)। १८. पर्वत के शिखर से गिरते हुए (१६२.१०) । १९. साधु के पास बैठकर उपदेश सुनते हुए (१९)। २०. तप करते हुए-लिहया तवं काऊण समाढत्ता (१६३.३२) ।
इस विस्तृत चित्रपट के वर्णन के बाद कुवलयमाला में चित्रकला के दो उल्लेख और प्राप्त हैं :६. कुवलयचन्द्र के अभिषेक के समय राजसभायें चित्रित को गयीं
चित्तिज्जति राय-सभानो (१६६.२६) । ७. अरूणाभपुर के राजकुमार कामगजेन्द्र के दरबार में एक चित्रकार
पुत्र उपस्थित हुआ। उसने पट पर चित्रित एक चित्रपुतली राजकुमार को समर्पित की-(२३३.८)। वह चित्र सकल कलाओं में प्रवीण लोगों के द्वारा प्रशंसनीय था-सयलकला-कलाव-कुसल-जणवण्णणिज्ज ति । उसे देखकर कामगजेन्द्र ने कहा-'किसी ने सच ही कहा है कि राजा, चित्रकार एवं कवि तीनों नरक में जाते हैं (२३३.९)। क्योंकि पृथ्वी में जिस वस्तु का अस्तित्व भी नहीं होता, ये तीनों उसकी सत्ता बतलाते हैं। अतः झूठ बोलने के कारण
नरकगामी होते हैं (२३३.११,१२)' । चित्रकार-दारक ने कामगजेन्द्र की इस बात का प्रतिवाद करते हुए कहा'कुमार, राजा तो स्वतन्त्र होता है अतः उसे नरक जाने से कौन रोक सकता हैं। कवि जो कुछ सुनता है, देखता है तथा अनुभव करता है उसे ही अपनी प्रतिभा से (सत्तीए) काव्य में उतारता है। उसी प्रकार चित्रकला में प्रवीण चित्रकार भी किसी वस्तु को देखकर ही चित्र बनाता है। इस सुन्दरी का चित्र भी मैंने उज्जयिनी की राजकुमारी को देखकर तदनुरूप बनाया हैउज्जेणीए""दठूण इमं रूवं तइउ च्चिय विलिहियं एत्थ ((२३३.१६)। १. राया होइ सतंतो वच्चउ गरयम्मि को णिवारेइ ।
जं चित्त-कला-कुसलो कई य अलियं पुणो एयं ॥ सत्तीए कुणइ कव्वं दिटुं व सुयं व अहव अणुभूयं । चित्त-कुसलो वि एवं दिटुं चिय कुणइ चित्तम्मि ॥-कुव० २३३.१४,१५.