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शिक्षा एवं साहित्य
२४५ (काश्मीर) एवं सिन्ध के छात्र प्रमुख थे। पाटलिपुत्र के छात्र भी वहाँ थेपाटलिपुत्र महानगरवास्तव्ये (१५१.२३)। इनकी दिनचर्या अध्ययन के अतिरिक्त अन्य प्रकार की थी।
कुछ छात्र धनुर्वेद, फलक-खड्ग (फर-खेड्ड)२ असिघेणु आदि शस्त्रों के प्रयोग में ही अपना मन लगाते थे, कुछ भाला फेंकने में। कुछ छात्र आलेख्य, गीत, वादित्र आदि के अभ्यास में अपना समय काटते थे (मालेक्ख-गीय-वाइय) । कुछ छात्र, जिन्हें नाटक करने का शौक था, भाण, शृगाटक तथा डोंबलिक जैसे नाटक करते रहते थे और कुछ छात्र नृत्य का अभ्यास करते रहते थे (१५०.२२)। सम्भवतः ये छात्र क्षत्रिय और वैश्य जाति के रहे होंगे। क्योंकि ब्राह्मण जाति के छात्रों की दिनचर्या अलग थी। वे वेदों का ही अध्ययन करते थे।
वेदपाठी छात्रों के वाल हाथों के द्वारा कुटिल बनाये गये थे। वे निर्दयतापूर्वक पैर पटक-पटक कर चलने से मोटे अंग वाले थे, उनके भुजात्रों के कंधे ऊँचे थे, उन्होंने दूसरों का माल खा-खाकर शरीर पर मांस चढ़ा रखा था, धर्म-अर्थ-काम पुरुषार्थों से रहित तथा बांधव, मित्र एवं धन आदि से भी वे हीन थे। कुछ छात्र जवान थे। एवं कुछ छात्र अभी बालक ही थे। किन्तु पर-युवतियों को देखने में हमेशा उनका मन लगा रहता था। अपने स्वरूप पर उन्हें घमण्ड था एवं वे अपने को सौभाग्यशाली मानते थे । हमेशा ऊंचा मुख करके और आखें चढ़ाकर रहते थे तथा गुरुओं द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त व दण्ड को न माननेवाले एवं आलसी थे-इट्ठाणुघट्ट मट्ठोरू (कुव० १५१.१४-१६) । - कुवलयचन्द्र ऐसे छात्रों को देख कर कहता है कि अरे ये तो दूसरों के परिवाद की चिन्ता करनेवाले तथा उसी में अपना मन लगाने वाले हैं। अतः अवश्य ही इन्होंने कुवलयमाला के विषय में भी सुना होगा-परतत्ति-तग्गय-मणा (१५१.१७) । मठ के छात्रों का उपर्युक्त विवरण छात्रावास के जीवन का यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत करता है।
विभिन्न विद्याओं के जानकार-कुवलयमाला में दो तरह के विद्वानों का परिचय मिलता है। प्रथम वे, जो विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के विषयों का अध्ययन कराते थे और दूसरे वे, जो राजा के दरबार में अपने-अपने विषय के पंडित होते थे। मठों के उपाध्याय न केवल सभी दर्शनों के ज्ञाता अपितु ७२ कलाओं और ६४ विज्ञानों में भी पारंगत होते थे (१५१.११)। राजदरवार में उद्योतन ने २७ विषयों के अधिकारी विद्वानों के उपस्थित रहने की सूचना दी है तथा यह १. लाडा कण्णाडा वि य मालविय-कणुज्ज-गोल्लया केइ ।
मरहट्ट य सोरठा ढक्का सिरिअठ-सेंधवया ॥- कुव० १५०.२०. २. द्रष्टव्य-ठाकुर, अनन्तलाल, 'सम डाउटफुल रीडिंगस् इन कुव०'
-सम्बोधि, १९७२.