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धातुवाद एवं सुवर्ण सिद्धि है । उसमें क्रमांक १२ से १७ तक की कलाओं के विषय हैं-पत्थर और धातुओं का गलाना तथा भस्म बनाना, धातु और औषधियों के संयोग से रसायनों का बनाना, धातुओं के मिलाने और अलग करने की विद्या, धातुओं के नये संयोग बनाना तथा खार निकालने का ज्ञान ।' ये सभी कार्य धातुवाद के अन्तर्गत होते हैं।
उद्द्योतनसूरि ने कुव० में धातुवाद को अधिक स्पष्ट किया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में धातुवाद का छहबार उल्लेख हुआ है । चतुर्थ उल्लेख (१९५-१६७) धातुवाद के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करता है। कुमार कुवलयचन्द्र विवाह के बाद अयोध्या वापस लौट रहा था। रास्ते में एक रात्रि को उसकी भेंट कुछ धातुवादियों से होती है । कुमार उन धातुवादियों के निष्फल प्रयत्न को पुनः सफल बनाता है (१९७.१, ६)। इस प्रसंग में धातुवाद से सम्बन्धित निम्नांकित सामग्री प्राप्त होती है :
शिक्षा-धातुवाद की शिक्षा ७२ कलाओं के अध्ययन करते समय ली जाती थी। यदि कोई व्यक्ति विधिवत समय पर इन कलाओं का अध्ययन नहीं कर पाता था तो वह अपनी आवश्यकतानुसार कुछ कलाओं को उनके अधिकारी विद्वानों की सेवा करके सीखता था। धातुवाद को शिक्षा भी इस प्रकार ली जा सकती थी। दो वणिकपुत्रों द्वारा धनोपार्जन के लिए किये गये सभी प्रयत्न व्यर्थ हो गये तो वे धातुवाद के जानकार किसी व्यक्ति की सेवा करने लग गये। उससे धातुवाद की शिक्षा प्राप्त की। किन्तु धातुवाद की शिक्षा एक ऐसी रसायनिक प्रक्रिया थी, यदि तनिक भी सीखने में चूक हो जाय तो सारे प्रयत्न व्यर्थ हो जाते थे।
प्रयोग करने का समय आदि-धातुवाद की शिक्षा प्राप्त कर लेने मात्र से कुछ प्राप्त नहीं होता, जब तक उसका व्यवहार में प्रयोग न किया जाय । सफल प्रयोग करने के लिए प्रयोग का प्राथमिक परीक्षण, उपयुक्त एवं प्रसिद्ध स्थान, कुशल उपाध्यायों का निर्देशन, निपुण धातुकला के विशारदों का सहयोग, सरस औषधियाँ, शुभ लग्न तथा बलि का दिया जाना आदि आवश्यक उपकरण थे (१६५.२६, ३०)। फिर भी यदि धातुवादी स्वर्ण बनाने में सफल न हो पाते तो अपने पूर्व जन्म के पुण्य के अभाव को ही इसका कारण मानते थे।
१. पाषाण-धात्वादिदृतिभस्मकरणम् । धात्वोषधीनां संयोगक्रियाज्ञानम् । धातुसांकर्य
पार्थक्यकरणम् । धात्वादीनां संयोग-पूर्वविज्ञानम् । क्षारनिष्कासनज्ञानम् ।
- शुक्रनीति, ६४ कलाएँ। २. कुव० २२.५, ९८.१९, २०, १०४.१९, १९१.२४, १९१-१९७, २६९.७, ८.
अह तत्थ वि णिविण्णा अल्लीणा कं पि एरिसं पुरिसं ।
धाउव्वायं धमिमो ति तेण ते कि पि सिक्खिविया ॥-१९१.२४. ४. कहिं भणह सामग्गीए जाओ ण जाओ, जेण कणयं ति चिंतियं सुव्वं जायं ।
-१९५.२८ ५. तहवि विहडियं सव्वं । णत्थि पुन्व-पुण्णो अम्हाणं । वही १९५.३०.३१.