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________________ २१४ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन गोरोचन आदि के द्वारा वंदना की गयी और सेना की भाँति सार्थ चल पड़ा।' तब तरुण सार्थवाह को अनुभवी सार्थवाह द्वारा मार्ग की कठिनाइयों का सामना करने के लिए उचित सलाह दी गयी थी (६५.१६) । उस समय किसी भी स्थान की यात्रा करने के लिए सार्थ को प्रामाणिक माना जाता था। अकेले-दुकेले यात्री किसी सार्थ का साथ पकड़ लेते थे, ताकि मार्ग में किसी तरह को कठिनाई न हो और गन्तव्य तक पहुँचा जा सके । कोशल की बणिकपुत्री ने रात्रि के पश्चिम प्रहर में पाटलिपुत्र को जाने वाले एक सार्थ का अनुगमन किया, किन्तु गर्भावस्था के कारण वह सार्थ के साथ चल न सकी और पीछे रह गयी ।२ कुमार कुवलयचन्द्र ने विन्ध्यपुर से कांची की ओर जाने वाले सार्थ का साथ कर लिया था जिससे विजयपुरी तक वह पहुँच सके । सार्थ का साज-सामान-प्राचीन भारत में सार्थ के साथ अनेक सामान एवं सवारियाँ रखी जाती थीं जिससे रास्ते में जरूरत का सब सामान उपलब्ध हो सके। कुवलयमाला में दक्षिणपथ में जानेवाले सार्थ के वर्णन से ज्ञात होता है कि उस समय सार्थ स्वतन्त्र विचरण करनेवाले ऊँटों के कारण मरुदेश जैसा, बलिष्ठ बैलों की गर्जना से शोभित महादेव के मंदिर-जैसा, झूमकर चलनेवाले गधों के कारण रावण-राज्य जैसा, अनेक अश्वों के समूह के कारण राज्यांगण जैसा, वनियों के समूह के विचरण करने के कारण विपणिमार्ग जैसा तथा अनेक प्रकार के वर्तन एवं सामान के कारण कुम्हार की दुकान जैसा दिखायी पड़ता था। ऐसे सार्थों के सार्थवाह बड़ी कुशलता से सार्थ का संचालन करते हुए उसे आगे ले जाते थे। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि ८वीं सदी तक लम्बी व्यापारिक यात्राओं में भी घोड़े और ऊँट का प्रयोग होने लगा था। इसके पहले लम्बी यात्रा में घोडे का उपयोग केवल सेना में होता था। किन्त ८वीं से १०वीं सदी तक घोड़े व्यापारिक यात्रायों में सार्थों के प्रमुख अंग हो गये थे। सम्भवतः यह अरब व्यापार की वृद्धि के कारण हुअा होगा, जिसमें घोड़े व्यापार के प्रमुख साधन थे। १. सज्जीकया तुरंगमा, सज्जियाई जाण-वाहणाई गहियाई पच्छयणाई, चित्तविया आडियत्तिया, संठविओ कम्मयर-जणो, आउच्छिओ गुरुयणो, वंदिया रोयणा, पयत्तो सत्थो, चलियाओ बलत्याउ ।-कुव० ६५.१३, १४ २. राईए पच्छिम जामे पाडलिउत्तं अणुगामिओ सत्थो उवलद्धो । तत्थ गंतुं पयत्ता। -वही ७५.१३,१४. ३. भो भो सत्थवाह, तुब्भेहिं समं अहं किंचि उद्देसं वच्चामि त्ति ।-वही १३५.८. अणेय वणिय-पणिय-दंड-भंड-कुंडिया-संकुलो महंतो सत्थो। जो कइसओ। मरुदेसु जइसओ उद्दाम-संचरंत-करह-संकुलो। हर-णिवासु जइसओ ठेक्कंत-दरियवसह-सोहिओ । रामण-रज्ज-जइसओ उद्दाम-पयत्त-खर-दूसणु । रायंगणु जइसओ बहु-तुरंग-संगओ । विपणि-मग्गु जइसओ संचरंत-वणियपवरू। कुंभरावणु जइसओ. अणेय-भंड-विसेस-भरिओ ति ।-कुव०१३४-३२, १३५.२. »
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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