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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन तथा दुख के बिना सुख नहीं है ।' रत्नद्वीप के इसी कठिन मार्ग के कारण भद्र श्रेष्ठी का जहाज सात बार समुद्र में उतारने पर सातों वार नष्ट हो गया। अतः उसने तो वहाँ जाने का विचार ही छोड़ दिया था।'
उद्द्योतन के इस विवरण में चपल वीजाप हवा (चपलावीइओ), दीर्घतन्तु, गला देनेवाली तिमिगिली एवं कुशल चोर का उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सम्भवतः आवश्यकचूणि (पृ० ७०९ अ) में उल्लिखित १६ हवाओं में बीजाप हवा ही उद्द्योतन की चवलावीइओ है, जिस हवा के कारण वीथियाँ चपल हो जाती होंगी। दीर्घतन्तु किसी समुद्री जानवर का नाम हो सकता है। तिमिंगल एक भयंकर जल जन्तु था, जो चलती जहाज के यात्रियों को निगल जाने में समर्थ था। सम्भवतः इस जन्तु की भयंकरता के कारण ही साहित्य एवं कला में इसके उल्लेख प्राप्त होते हैं। भरहत की कला में एक स्थान पर एक जहाज का चित्रण हुआ है जिसमें एक तिमिंगल ने धावा कर दिया है और जहाज के गिरे हुए कुछ यात्रियों को निगल रहा है (आ० ९)। के० वरुणा के अनुसार भगवान् बुद्ध की कृपा से तिमिंगल के मुख से वसुगुप्त की रक्षा का यह चित्रण है । १०वीं सदी में भी समुद्रयात्रा में तिमिंगल का भय बना हुआ था। कुशल चोरों का संकेत सम्भवतः बंगाल की खाड़ी के जल-दस्युओं के लिए रहा हो, जिनसे बचने के लि भारतीय व्यापारी ८वीं सदी में स्थलमार्गों से विदेश जाने लगे थे। क्योंकि स्थलमार्ग की प्राकृतिक कठिनाइयाँ जल-दस्युओं के आक्रमणों से सरल पड़ती होंगी।
किन्तु जलमार्ग को उपर्युक्त कठिनाइयाँ भारतीय उत्साही वणिक्पुत्रों के लिए उनके उद्देश्य में वाधा नही डालती थीं। क्योंकि वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि साहसहीन पुरुष को लक्ष्मी आलिंगित होने पर छोड़ देती है। अतः पुरुष वही है, जो हृदय मे ठान ले उसे पूरा करके छोड़े। इन तर्कों के वल पर धनदेव रत्नद्वीप को यात्रा के लिए स्वयं तो तैयार होता ही है, भद्रश्रेष्ठी को भी साथ कर लेता है। समराइच्चकहा के धरण आदि की समुद्रयात्रा के प्रसंग में भी साहस का यही परिचय मिलता है।
१. अहो दुग्गमं रयणदीवं । तहा दुक्खेण विणा सुहं णत्थि ।-वही ६६.१०. २. सत्त-हुत्तं जाणवत्तेण समुद्दे पविट्ठो । सत्त-हुत्तं पि मह जाणवत्तं दलियं ।
ता णाहं भागी अत्थस्स । तेण भणिमो ण वच्चिमो समुद्दो । -वही ६६.२९. ३. भरहुत, भाग १, प्लेट ४०-१४, आ० ८५, भाग २, पृ० ७८; सार्थवाह,
पृ० २३२ पर उद्धृत । ४. तिलकमंजरी, पृ० १४०. ५. मो०-सा०, पृ० २००. ६. पुरिसेण सव्यहा कज्ज-करणेक्क वावड-हियएण होइयव्वं ।--कुव० ६६.२५.