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________________ २०० कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन सुवर्ण- उद्योतन ने कुव० में दो बार सुवर्ण नामक सिक्कों का उल्लेख किया है । राजा दृढ़वर्मन् ने रानी को कुपित करनेवाले को अर्द्धसहस्र सुवर्ण देने को कहा है ' तथा मायादित्य एवं स्थाणु चोरों के भय से एक हजार सुवर्ण के मूल्य वाले रत्न खरीद कर अपनी यात्रा प्रारम्भ करते हैं । इन दोनों प्रसंगों से ज्ञात होता है कि सुवर्ण मुद्रा के रूप आठवीं सदी में प्रचलित था । प्राचीन भारतीय साहित्य में हिरण्य एवं सुवर्ण का उल्लेख एक साथ मिलता है, कई जगह अलग-अलग भी । डा० भंडारकर ने यह सिद्ध किया कि अनगढ़ हुण्ड की संज्ञा हिरण्य थी । उसी के जब सिक्के ढाल देते थे तब वे सुवर्ण कहलाते थे । गुप्तयुग के जो सुवर्ण के सिक्के प्राप्त हुये हैं उनका वजन लगभग १ कर्ष = ८० गु ंजा (१५० ग्रेन) है। अतः सम्भवतः उद्योतन के समय में प्रचलित स्वर्ण के सिक्कों का वजन भी इसी के लगभग रहा होगा । तत्कालीन स्वर्ण का सिक्का प्राप्त होने पर इस पर अधिक प्रकाश पड़ सकता है । गारसगुणा - कुव० में 'एगा रसगुणा' शब्द का प्रयोग हुआ है ।" दोनों जगह दण्ड स्वरूप यह राशि देने को कही गयी है । सम्भवतः या तो जितनी कीमत की वस्तु का जिसका नुकसान किसी के द्वारा हुआ हो उससे ग्यारह गुनी कीमत जुर्माने के रूप में देने का कानून रहा हो, अथवा 'एगारसगुणा' नाम किसी निश्चित राशि के लिए तय हो, जो अपराधी को दण्ड स्वरूप देनी पड़ती रही हो । अन्य सन्दर्भ मिलने पर यह शब्द अधिक स्पष्ट हो सकेगा । श्रेष्ठी कुव० में वर्णित उपर्युक्त वाणिज्य एवं व्यापार के प्रसंगों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में श्रेष्ठियों का महत्त्वपूर्ण स्थान था । व्यापारियों के संगठन का श्रेष्ठी प्रधान होता था । इस समय नगर सभ्यता- विकास पर थी । अतः श्रेष्ठियों को नगर श्रेष्ठी आदि नाम से भी सुशोभित किया जाने लगा था । कुव० श्रेष्ठ पद को सूचित करने वाले निम्नोक्त शब्द मिलते हैं : १. भद्रश्रेष्ठि (भद्सेट्ठीणाम जुण्ण - सेट्ठी (६५.२१ ) २. महानगर श्रेष्ठि (एक्कस्स महाणयर सेट्टिणो, ७३.८) ३. महाधनश्रेष्ठि (वेसमण - समो महाघणो णाम सेट्ठि, १०७.१६,२२४.१८) ४. जुण्णसेट्ठि (जुण्ण सेट्टिणो घरे अवइण्णा, १०९.२६) १. जेण तुमं कोविया तस्स सुव्वणद्ध- सहस्सं देमि । - वही १२.११. २. सुवण्ण - सहस्स - मोल्लाई रयणाई पंच-पंच हिमो । - वही ५७.३२. ३. प्राचीन भारतीय मुद्राशास्त्र, पृ० ५१. ४. कौटिल्य द्वारा स्वीकृत. ५. जं णत्थि तं एक्कारस-गुणं' देमि । - कुव० १३८.७. इ खज्जइ कह वि कवड्डिया वि एगारसं देमि । -- वही १५३.१८
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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