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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन रखना ही पड़ेगा। किन्तु व्यापारी लोग भी राजा की सेवा करते थे। जब कोई व्यापारी अपने सार्थ के साथ किसी राज्य में पहुँचता था तो पहले वहाँ के राजा से विविध बहुमूल्य भेंट के साथ मिलता था। धनदेव जैसे ही रत्नद्वीप में पहुँचा उसने उपयुक्त भेंट ली। जाकर राजा से मिला और उसे प्रसन्न किया।' इससे ज्ञात होता है कि किसी भी राज्य में व्यापार करने के पूर्व वहाँ के शासन को अनुमति लेना आवश्यक थी।
नाप-तौल में कुशलता-'कुशलत्तणं च माणप्पमाणेसु' का अर्थ है मापतौल के कार्य में कुशल होना । व्यापारिक-वस्तुओं की प्रामाणिकता और नकलीपन को कुशल व्यापारी ही पहचान सकता है। असली माल खरीदने पर ही लाभ सम्भव है। धनदेव के पिता ने इस व्यापारिक कुशलता की ओर संकेत भी किया है कि माल का परीक्षण करना बड़ा कठिन है- दुप्परियल्लं भंडं (६५.१५) । इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु की सही नाप-तौल के लिए विज्ञ होना और धर्मकांटा लगाकर उसकी व्यवस्था करना भी इस अर्थोपार्जन में सहायक होता रहा होगा।
इस बात-चीत के प्रसंग में धुर, वहेड, गोत्थण, मंगल, सुत्ती अादि शब्द विशेष संख्या के द्योतक हैं। कुव० की 'जे' प्रति के हासिये पर ऐसे संख्यासूचक कुछ शब्द लिखे हुए हैं। उनमें से २ संख्य के लिए धुरं, ६ के लिए बहेडो, ४ के लिए गोत्थण एवं २० के लिए सुत्ती शब्द प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त हुए हैं। मंगलं किस संख्या के लिए प्रयुक्त हुआ है, इसका निर्देश वहाँ नहीं है । सम्भवतः ८ संख्या के लिए मंगलं का प्रयोग हुआ है। संख्या के लिए प्रतीकों का प्रयोग भारतीय गणित में प्राचीन समय से होता रहा है।
धातुवाद-विभिन्न रसायनों द्वारा धातुओं से स्वर्ण बनाना भी अर्थ प्राप्ति का साधन था। आठवीं सदी में धातुवाद का पर्याप्त प्रचार था एवं यह एक विद्या के रूप में विकसित हो चुका था। उद्द्योतन ने धातुवाद का विशद वर्णन प्रस्तुत किया है । इस पर विशेष अध्ययन आगे प्रस्तुत है।
देव-आराधना-धनार्जन के लिए जाते समय मांगलिक कार्य किये जाते थे। इष्ट देवताओं की आराधना की जाती थी। प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग देवताओं की आराधना को शुभ माना जाता था। चोरी को जाते समय चोर खरपट, महाकाल, कात्यायनी आदि की आराधना करते थे। विदेशगमन के समय समुद्र-देवता की आराधना की जाती थी। इष्टदेवों को स्मरण किया जाता था।' खनन कार्य द्वारा धन प्राप्ति के लिए धरणेन्द्र, इन्द्र, धनक एवं धनपाल
१. उत्तिणा वणिया गहियं दंसणीयं । दिट्ठो राया कयो पसाओ-६७.१२. २. द्रष्टव्य-- उपाध्ये, कुव० १५३.१७ का फुटनोट । ३. द्रष्टव्य-ज०-० भा० स०, पृ० ७१. ४. पूइऊण समुद्ददेवं १०५-३२. ५. सुमरिज्जति इठ्ठ-देवए-वही-६७.२.