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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
धनार्जन के निन्दित साधन बतलाया, जो उसके सज्जन स्वभाव के प्रतिकूल थे एवं उनको अपनाने में दोष लगता था ( ५७.३३ ) । इन निन्दित साधनों के अतिरिक्त ग्रन्थ में अन्यत्र जीव-जन्तुओं को बेचकर धन कमाना निन्दनीय माना गया है तथा जो ऐसा करता है वह मरकर दासत्व को प्राप्त करता है ।' अर्थो पार्जन के उक्त साधन समाज में सामान्यरूप से तो निन्दनीय थे ही, जैनपरम्परा की अहिंसक भावना के कारण जैनाचार्यों द्वारा भी उनका निषेध किया जाता था । धर्मबिन्दु एवं उपमिति भवप्रपंचकथा में ऐसे अनेक हिंसक कार्यों का धनोपार्जन के लिए निषेध किया गया है --
अनिन्दित साधन
मायादित्य के पूछने पर स्थाणु ने धनोपार्जन के निम्नोक्त अनिन्दित साधन वतलाये जो ऋषियों द्वारा कथित हैं । 3
१. देशान्तर में गमन (दिसि गमणं ५७.२४),
२. साझीदार बनाना ( मित्तकरणं),
३. राजा की सेवा ( णरवर - सेवा ),
४. नाप-तौल में कुशलता ( कुसलत्तणं च माणप्पमाणेसु),
५. धातुवाद ( धाउव्वाश्रो ),
६. मन्त्रसाधना ( मंतं ),
७. देव आराधना (देवयाराहणं ),
८. कृषिकार्य (केसिं),
९. सागर-सन्तरण ( सायर-तरणं),
१०. रोहण पर्वत का खनन (रोहण म्मि खणणं),
११. वाणिज्य ( वणिज्जं ),
१२. नौकरी आदि ( णाणाविहं च कम्मं ),
१३. विभिन्न प्रकार की विद्याएँ तथा शिल्प ( वज्जा - सिप्पाईं णेय-रूवाइं) ।
उद्योतन ने इन सभी अर्थोपार्जन के साधनों का कुत्र० में प्रयोग किया है । इनमें से कुछ साधन तो स्पष्ट हैं, कुछ पर संक्षेप में प्रकाश डालना उचित होगा ।
१. जाइ - मउम्मत्त मणो जीवे विक्किणइ जो कयग्घोय ।
सो इंदभूइ मरिउं दासत्तं वच्चए पुरिसो ॥ — कुव० २३१.२८.
२. उद्धत - श० - रा० ए०, पृ० ४९३.
३. रिसीहिं एवं पुरा भणियं - अत्थस्स साहयाइं अणिदियाइं च एयाई ।
- कुव० ५७- २४, २६.