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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन बजते थे (१.२) । मणिवलय अथवा रत्नवलय एक प्रकार का जड़ाऊ कंगन होता था, जिसे प्रायः एक ही हाथ में पहिना जाता था । स्त्रियाँ वलय अधिक पहिनती थीं। अहिच्छत्रा से प्राप्त किन्नर-मिथुन के मृणमय फलक पर किन्नरी दाहिने हाथ में इस प्रकार का कंगन पहिने है, जिसे उस समय की भाषा में दोला-वलय कहा जाता था।' पल्लू से प्राप्त जैन सरस्वती की मूर्ति भी वलय पहिने हुए है ।२
कुव० में उल्लिखित उपर्युक्त ३८ प्रकार के अलंकार प्रायः नारियों के गले और कमर की शोभा बढ़ाते थे। कानों में कर्णफूल और कुंडल, कंठ में कंठा, कंठिका, दाम, पुष्पमाला, मुक्तावली, रत्नावली और वनमाला, कलाई में कटक
और वलय, कमर में कटिसूत्र, किकिणी, कांची, मणिमेखला और रसना तथा पैरों में नुपुर पहिने जाते थे। ये आभूषण चांदी, सोने और रत्न-मणियों से गढ़ कर बनाये जाते थे। केशविन्यास एवं प्रसाधन
कुव० में केशविन्यास से सम्बन्धित निम्नोक्त शब्दों का प्रयोग हुआ है :धम्मिल्ल (१.११), केशपब्भार (१.५, ८४.१५, १८२.३), जटाकलाप सोहिल्लं (१२८.१६) चूडालंकार (१२८.२१), सीमान्त (१५३.५), मुडेमालुल्लिया (८४.१६), कोंतलकाउँ-सुइरं (८३.८)। इनकी विशेष जानकारी इस प्रकार है :
धम्मिल-विन्यास-पावस ऋतु में मनोहर मयूरों का नृत्य स्त्रियों के धम्मिल्ल सदृश होता है-मणोहरा सिहि कुरंत-धम्मिला । तथा कुव० के सिर पर कज्जल सदृश नीला धम्मिल्ल शोभित था (१८२.७) । कुव० के इन सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि धम्मिल्ल केश-विन्यास स्त्रियों का होता था। मौलिवद्ध केशरचना को धम्मिल्ल विन्यास कहा जाता था। वालों का जूड़ा बनाकर उसे माला से बांध दिया जाता था। जूड़ा के भीतर भी माला गूथी जाती थी। प्राचीन साहित्य में धम्मिल-विन्यास के अनेक उल्लेख मिलते हैं। साथ ही केशविन्यास का चित्रण कला में भी हुआ है। राजघाट से प्राप्त खिलौनों में धम्मिल्ल-विन्यास के अनेक प्रकारों का अंकन हुआ है । गुप्तकाल की पत्थर की मूत्तियों में इस विन्यास का भिन्न प्रकार अंकित है।
१. अ०-का० सां० अ०, पृ० २४. २. श० -रा० ए०, पृ० ४६४. ३. शिवराममूत्ति-अमरावती स्कल्पचर्स इन द मद्रास गवर्नमेन्ट म्युजियम, मद्रास,
१९५६, पृ० १०६. ४. धम्मिल्लाः संयताः कचाः। -अमरकोष, २.६.९७. ५. रघुवंश, १७.२३ ; हर्षचरित, ४.१३३; यशस्तिलकचम्पू, पृ० ५३२. ६. अग्रवाल, कला और संस्कृति, पृ० ३५१.