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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन पूर्व चीन से आनेवाले अनेक चीन, चीनांशुक आदि वस्त्रों का भारतीय साहित्य में उल्लेख है, जो यहाँ के बाजारों में काफी प्रसिद्ध थे। उद्योतन ने चीन से आनेवाले वस्त्रों में गंगापट का सम्भवतः प्रथम बार उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि पाठवीं सदी में भारत के बाजार के लिये चीन एक विशेष प्रकार का शिल्क तैयार करने लगा था, जिसे वहाँ की भाषा में गंगापट कहा जाता होगा और जो भारत में गंगाजुल नाम से जाना जाता था । डा० अग्रवाल के अनुसार यह सम्भवतः श्वेत शिल्क रही होगी।' डा० बुद्धप्रकाश ने इस पर विशेष प्रकाश अपने निबन्ध में डाला है। गंगापारी नाम के वस्त्र से भी इसको तुलना की जा सकती है।
चित्रपटो-कुमार कुवलयचन्द्र के जन्मोत्सव के समय चित्रपटी के कपड़े बाँटे जा रहे थे (१८.२७)। यह चित्रपटी एक ऐसे वस्त्र को कहा गया है, जिसमें विविध डिजाइन (आकृतियाँ) बनो रहो होंगी। आजकल जो छींट आती है, चित्रपटी उसके सदृश रही होगी।
___चिधाला-कुव० में 'चिंधयं एवं चिधाला इन शब्दों का अलग-अलग प्रयोग हुआ है। सुतुगचारुचिधयं (२४.२०) का अर्थ ऊँची एवं सुन्दर ध्वजा है। किन्तु-'किर-भाउणो विवाहे गव-रंगय-चीर-बद्ध-चिधालो। परितुट्ठो णच्चिस्स' (४७.३०) का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। अन्य लोग अपने भाई के विवाह में नये रंगे हुए वस्त्रों से युक्त पगड़ी (चिंधालों) को पहिनकर हर्षपूर्वक नाचते हैं, यह अर्थ उक्त वाक्य का किया जा सकता है। चिघालो को पगड़ी का पर्याय मानना विचारणीय है। उद्द्योतन के इस वाक्य से इतना तो स्पष्ट है कि विवाह आदि के अवसर पर नये रंगे हुए वस्त्र पहिने जाते थे एवं चित्र-विचित्र वस्त्र पहिन कर नृत्य किया जाता था। रंग-बिरंगें वस्त्र पहिन कर नाचने की परम्परा गुप्तयुग में प्रचलित थी। रायपसेणिय (पृ० १५५) के उल्लेख के अनुसार नर्तकों ने रंग-विरंगे वस्त्र -चित्त-चित्त-चिल्लगनियसणं- पहिन रखे थे। सम्भवतः यह 'चिल्लग' एवं कुवलयमाला का 'चिंधाल' नर्तकों को कोई विशेष वेषभूषा रही होगी । पालि-साहित्य के 'चेलुक्खेय' शब्द का अर्थ डा० अग्रवाल ने वस्त्रविशेष को हिला कर आनन्द प्रकट करना किया है । भरहुत के अर्धचित्रों में एक जगह 'चेलुक्खेय' का अंकन हुआ है । सम्भवतः यही 'चेलुक्खेय' बाद में नर्तक का कोई विशेष वस्त्र बन गया हो, जिसे हिलाकर वह नृत्य करता रहा होगा। रूमालों को हिला-हिला कर नृत्य करने की प्रवृति आज भी कई नृत्यों में देखी
१. उ०-कुव० ---इ०, पृ० ११८... २. वर्णकसमुच्चय-भाग २, पृ० २५. ३. मो०-प्रा० भा० वे०, पृ० १७१ पर उद्धृत । ४. द्रष्ठव्य, वही, २०७ तथा अ०-६० अ०, पृ० १३७ पर चेलोत्क्षेप द्वारा हर्ष के
प्रति जनता अपना प्रेम प्रकट कर रही है। (भ्रमच्छुत्क वाससि)। इस सन्दर्भ से तुलना कीजिये।