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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन है। परिचारिका सिद्धार्थी द्वारा गोरचना से सिद्ध किया हुआ ताबीज बनाया गया-सिद्ध थिए, गोर-सिद्धत्थ-करंबियानो, कुव० (१७.२८)। कालिदास ने इसी को रक्षाकरण्डक कहा है।' सुभटी को बालक और देवी के लिए रक्षामंडलाग्र ग्रहण करने को कहा गया।२ ।
पुत्रजन्म की सूचना मिलते ही राजा ने शरीर पर धारण किए हुए सभी आभूषण परिचारिका को दे डाले और जन्मोत्सव मनाने का आदेश दे दिया। राजा का आदेश मिलते ही सारे नगर में समुद्र-गर्जना की भाँति तूर का शब्द गूंज उठा। राजमहल कस्तूरी के चूर्ण से पूर दिया गया। महलों में वारविलासिनियों के नृत्य होने लगे। नगर के लोग भी उल्लासपूर्वक नृत्य करने लगे। राजा ने उदारतापूर्वक इतना दान दिया कि ऐसी कोई वस्तु न थी जो प्रदान न की गयी हो और ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जिसे कुछ प्राप्त न हुआ होतं णत्थि जं ण दिज्जइ णूणमभावो ण लब्भए जं च (१८.३०) ।
वर्धापन-सामान्यतया खुशी के अवसर को वर्धापन कहा गया है । कुव० के अनुसार पुत्रजन्म के अवसर पर राजा ने वर्धापन मनाने का आदेश दिया। कुमारी कुवलयमाला के जन्म पर पुत्रजन्म से भी अधिक वर्धापन मनाया गया (१६२.९) तथा उज्जयिनी की राजकुमारी का विवाह निश्चित हो जाने पर भी वर्धापन मनाया गया-(२३३.३३) । जन्मोत्सव बारह दिनों तक मनाया जाता था। बारहवें दिन नामकरण-संस्कार होता था (२१.२, १६२.९)। यह दिन इष्ट-मित्रों सहित प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत किया जाता था।
पंचधात्रि-संरक्षण-नामकरण के बाद कुवलयचन्द्र की देखभाल पाँच धाईयों को सौंप दी गयी।" जनसूत्रों में मुख्यतया पाँच प्रकार की दाईयों का उल्लेख मिलता है--दूध पिलाने वाली (क्षीर), अलंकार आदि से विभूषित करने वाली (मण्डन), नहलाने वाली (मज्जण), क्रीड़ा कराने वाली (क्रीडायन) और बच्चे को गोद में लेकर खिलानेवाली (अंक)।६ बौद्धसाहित्य में चार दाईयों का उल्लेख है। इन दाईयों की कुशलता एवं कमजोरी का बालक पर कैसा प्रभाव पड़ता था इसकी विस्तृत जानकारी जैनसूत्रों में प्राप्त होती है।'
१. अहो रक्षाकरंडकमस्य मणिबंधे न दृश्यते-शकुंतला, अंक, ७. २. सुहडिए-गेण्हसु बालयस्स देवीए य इमं रक्खा-मंडलग्गं ति-कुव०१७.२९. ३, समाइळं च राइणा वद्धावणयं, १८.९. ४. औपपातिक, ४०, पृ० १८५, आदि जैन ग्रन्थों में । ५. एवं च कय-णामधेओ पंच-धाई परिक्खितो–कुव० २१.७. ६. ज्ञाताधर्मकथा, पृ० २१. ७. दिव्यावदान, ३२, पृ० ४७५; मूगपक्खजातका (५२८) भाग ६; ललितविस्तार,
पृ० १००. ८. ज०-जै० आ० स०, पृ० २४३.४२.