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वर्ण एवं जातियाँ
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म्लेच्छ-जातियों
__चतुर्वर्ण व्यवस्था के बाहर जिनकी स्थिति थी उन्हें म्लेच्छ अथवा म्लेच्छ जाति का कहा जाता था। मुख्यरूप से आर्य संस्कृति के विपरीत आचरण करने वालों को म्लेच्छ कहा जाता था। इनका अपना अलग संगठन होता था और अलग रहन-सहन ।' कुव० में उल्लिखित निम्न जातियाँ म्लेच्छ कही जा सकती हैं :-प्रोड्, किरात, कुडक्ख, कोंच, कोत्थ, गोंड़, चंचुक, पुलिंद, भिल्ल, शबर, एवं रूरुची। 'प्रश्नव्याकरण' में जो म्लेच्छों की सूची दी गयी है उसमें कुव० में उल्लिखित म्लेच्छों के अधिकांश नाम समान हैं। चन्द्रमोहनसेन के धौलपुर अभिलेख में (८२४ ई०) चंबलनदी के दोनों किनारों पर बसे हुए म्लेच्छों का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि आठवीं सदी तक म्लेच्छ जाति अलग से संगठित हो चुकी थी। आधुनिक आदिवासियों से इनकी तुलना की जा सकती है।
प्रोड्डा (४०.२४)-कुव० में म्लेच्छ जातियों के अन्तर्गत प्रोड्डा का उल्लेख हुआ है। इसकी ठीक पहनान करना कठिन है। हुएनसांग ने प्रोड का उल्लेख करते हुये कहा है कि ये काले रंग के एवं असभ्य लोग थे तथा मध्यदेश से भिन्न भाषा का प्रयोग करते थे। आधुनिक उड़ीसा की पिछड़ी जातियों से ओड्ड की पहचान को जा सकती है । आधुनिक भाषा में इसे 'उड़िया' कहते हैं ।
किक्कय (४०.२६)-इसका उल्लेख जैनसूत्रों में २५।। आर्यक्षेत्रों के अन्तर्गत हुआ है। किकय का अर्ध भाग ही आर्य था, शेष अनार्य । इसी अनार्य भाग के लोगों को उद्योतन ने म्लेच्छ कहा है।
किक्कय नेपाल की सीमा पर श्रावस्ती के उत्तरपूर्व में स्थित था तथा उत्तर के केकय देश से यह भिन्न था।"
कुडक्खा (४०.२५)-जैनसूत्रों में कुडुक्क का उल्लेख अनार्य देश के रूप में हुआ है। वहाँ के निवासी कुडक्खा कहे गये हैं। व्यवहारभाष्य में कुडुक्खाचार्य का भी उल्लेख है। राजा सम्प्रति ने कुडुक्क आदि अनार्य देशों को जैन
9. Very often the people standing outside the caste system were
called Mlēçcha or Mlēçchajāti. But indigenous people the Shabar, Kirata, Khas, Odra, Gonda, Pulinda, Kocha, Bharruya, Bhilla also were termed Mlēçcha because they too stood outside the pale of Arya-culture. They had their own organisation and their own way of living which differed markedly from that of orthodox Aryas.
--S. RTA. PP. 427. See also P. 443, P.429. ३. प्राचीन भारतीय स्थलकोश, प्रयाग, पृ० २४२. ४. बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति, १.३२६३ आदि । ५. ज-जै० भा० स०, पृ० ४८६.