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________________ वर्ण एवं जातियाँ थे। यद्यपि वे अच्छे योद्धा नहीं होते थे, तथापि उनकी समृद्धि आदि के कारण राजदरवारों में उनकी पर्याप्त प्रतिष्ठा होती थी। यद्यपि वैश्यों की कई उपजातियाँ भी थीं, किन्तु वैश्यवर्ण में वे सभी व्यक्ति सम्मिलित किये जा सकते थे जो व्यापार को अपना व्यवसाय बनाते थे ।' राजस्थान की वैश्य जातियाँ अपनी उत्पत्ति क्षत्रियों से बतलाती हैं, किन्तु उस समय वे शूद्र भी वैश्य होते जा रहे थे, जो व्यापार में प्रवीण एवं प्रतिष्ठित होने लगे थे। कुव० का धनदेव यद्यपि शूद्रजाति में उत्पन्न था, किन्तु व्यापारिक मण्डल में उसका भव्य स्वागत किया जाता है। इससे ज्ञात होता है कि वैश्य जाति व्यवसाय के अनुरूप निर्मित हो रही थी। शूद्र _उद्द्योतन ने शूद्र जाति में गिनी जानेवाली अनेक उपजातियों का उल्लेख किया है, किन्तु शूद्र जाति का उल्लेख एक बार ही किया है। तक्षशिला में शूद्रजाति में उत्पन्न धनदेव नाम का सार्थवाह पुत्र रहता था-तम्मिगामे सुद्दजाइप्रो धणदेवो णाम सत्थवाहउत्तो (६५.२) । संस्कृत कुव० में 'शुद्धवंशभवो धनदेवाभिध:' (पृ. २१) पाठ है । अतः डा० उपाध्ये ने इसके लिए 'सुद्धजाइनो' पाठ निर्धारित कर (इन्ट्रोडक्शन, पृ० १३८, नोट्स्) धनदेव को शुद्ध जाति का माना है। किन्तु आठवीं सदी में शूद्रों की स्थिति को देखते हुए सार्थवाह भी शूद्र हो सकते थे । अतः धनदेव को शूद्र जाति में उत्पन्न ही मानना उपयुक्त प्रतीत होता है। डा० दशरथ शर्मा ने इस समय के शूद्रों की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है कि शूद्रों के अन्तर्गत कृषक, शिल्पी, मजदूर एवं अन्त्यज और म्लेच्छों के ऊपर के वे सभी, जो किसी कारणवश श्रेष्ठ तीन जातियों में न आ पाते थे, शूद्र कहे जाते थे। शूद्रों की स्थिति काफी सुधर रही थी।' कृषि अपनाने के कारण शूद्र वैश्य हो रहे थे तथा आर्थिक सम्पन्नता के कारण उनको सम्मान मिलने लगा था। धार्मिक एवं राजनैतिक स्थिति भी अच्छी हो रही थी। कुवलयमाला में उल्लिखित धनदेव का भी सार्थवाह होने के कारण सोपारक के व्यापारिक संगठन द्वारा सम्मानित किया जाना इस बात का प्रमाण है।" The doors of the Vaishya Varna were open to every new comer who tookup the profession of Trade, even though the incomers generally fell into sub-caste their own. -S. RTA. P.438. २. श०-रा० ए०, पृ० ४३५. ३. In other ways, However, the position of the Shudras of the period 700-1200 A. D. had improved a good deal. -S. RTA. P. 435-36. ४. वही० पृ० ४३५-३६ ५. देसिय-वाणिय मेलिए गन्तूण उवविट्ठो। दिण्णं च गंध-मल्ल-तंबोलाइयं, ६५.२५.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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