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ग्राम, वन एवं पर्वत
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वैताढ्यपर्वत (७.५, ६४.२७ आदि ) - कुव० में वैताढ्यपर्वत का छह बार उल्लेख हुआ है ।' किन्तु कामगजेन्द्र की कथा में इसका विस्तृत वर्णन है । अरुणाभपुर या उज्जयिनी के उत्तरदिशाभाग में रत्न-निर्मित, स्वर्ण धातुरस बहाने वाला, पीत प्रदेश से युक्त, विद्याधर मिथुनों से सुन्दर, वज्रनील मरकत आदि से सुशोभित कटक वाला, सिद्ध भवनों के ऊपर ध्वजाओं से युक्त तथा अनेक प्रकार की प्रज्वलंत औषधियों वाला वैताढ्य नामक पर्वत है |
वैताढ्य पर्वत का जम्बूद्वीप-पण्णत्ति में विशेष वर्णन हुआ है । उससे ज्ञात होता है कि यह पर्वत भारतवर्ष को दक्षिणभारत और उत्तरभारत में विभक्त करता था । इसलिए इसे वेयड्ढ कहा गया है । यह इसका गुणनिष्पन्न नाम है । इस पर्वत का लोक- प्रचलित नाम क्या था, इसकी जानकारी प्राप्त नहीं है । वर्तमान में वेयड्ढ नाम का कोई पर्वत नहीं है । मुनिश्री नथमल ने अपने एक निबन्ध में इसकी आधुनिक पहचान करते हुए कहा है कि वेयड्ढ का पूर्वोत्तर अंचल अराकान पर्वतमाला और पश्चिमोत्तर अंचल हिन्दुकुश पर्वत श्रेणी है । यही 'वेयड्ढ' पर्वत बृहत्तर भारत की विभाजन रेखा है ।
शत्रुंजय (१२४.१८ ) - एक विद्याधर की यात्रा के प्रसंग में कहा गया है कि वह वैड्ढ से सम्मेद शिखर गया । वहाँ से शत्रुंजय और शत्रुंजय से विन्ध्यपर्वत होता हुआ नर्मदानदी के किनारे पहुँचा । ( १२४.१८, १९) । शत्रुंजय पर्वत प्राचीन समय से ही तीर्थ-स्थान माना जाता रहा है । गौतम गणधर ने एवं अनेक मुनियों ने इस पर्वत से मोक्ष की प्राप्ति की थी । इसको प्रथम तीर्थ कहा गया है । " वर्तमान में शत्रुरंजय पर्वत सूरत से उत्तर-पश्चिम में ७० मील की दूरी पर तथा भावनगर से ३४ मील दूर काठियावाड़ में स्थित है ।
संबलीवन (१७६.२८) - झूठ बोलनेवाला तथा कपट करनेवाला घोर नरक सदृश संबलीवन में जाता है (१७६.२८) । इसकी पहचान नहीं की जा सकी है । सम्भवतः संबलीवन धार्मिक मान्यता के रूप में ही प्रचलित रहा हो ।
सम्मेदल (१२४.१८, २१६.६ ) - दृढवर्मन् साधु बनने के वाद सम्मेद - शिखर पर बन्दना के लिए चले गये। वहीं उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ (२१६.६) । सम्मेद शिखर जैनधर्म का प्राचीन तीर्थ है। ऐसा कहा जाता है कि ऋषभनाथ, वासुपूज्य, नेमिनाथ एवं महावीर के अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों की
१. कुव० ७.५, ६४.२७, १०७.२५, १२४.१८, २३५.३, २३८.२०.
२.
अत्थि इओ - वेढो णाम पव्वय- वरो - २३५.१, ३.
३. वेयड्ढ पर्वत – जैन दर्शन और संस्कृति परिषद् पत्रिका, १९६६ कलकत्ता,
पृ० ९७.
ज० - जै० कै०, पृ० ३३३.
४.
५.
६.
त्रि० श०च०, पृ० ३५४ आदि ।
डे - ज्यो० डिक्श०, पृ० १८२.