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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ 71 पूछे और अपने पूर्वभवों का वृतान्त सुनकर संसार से भयभीत हो गया, अत: परमपद - मोक्षपद प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने विधि पूर्वक समुद्रविजय को राज्य सौंप दिया और स्वयं समस्त ही परिग्रह छोड़कर, शान्तचित्त होकर उन्हीं सुप्रतिष्ठित जिनेन्द्र के समीप बहुत राजाओं के साथ तप धारण कर लिया। इस प्रकार संयम धारण करके अन्त में समाधिमरण किया और कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लिया। इस कथानक को पढ़कर हमें यह विचार करना चाहिए कि वह रुद्रदत्त का जीव मोक्ष की साधना करने में समर्थ मनुष्य भव, उत्कृष्ट कुल व सभी प्रकार की अनुकूलता पाकर भी विषयों में सुख बुद्धिरूप मिथ्यात्व के प्रभाव से मंदिर पूजा के लिए प्राप्त द्रव्य को सप्त व्यसनादि में लगाकर चोरी आदि निकृष्ट कार्यों को करके नरकादि के दुःख को प्राप्त हुआ। पश्चात् अनेक भवों में अनंत दुःख भोगे, जिन्हें कथानक में पढ़ते समय हमारे रोंगटे खड़े हो गये थे। ___ हम भी कहीं इस दुर्लभ मनुष्य भव - उत्कृष्ट कुल, स्वस्थ्य आजीविका, स्वास्थ्य की अनुकूलता, पूर्ण आयु, जिनधर्म का समागम, देव-शास्त्र-गुरु की आराधना, जिनवाणी का अध्ययन-मनन-चिन्तन पाकर भी अपने मिथ्या अभिप्राय का पोषण करते हुए कषायों को बढ़ाते हुए, पापों में लिप्त होकर, निश्चयाभास, व्यवहाराभास या फिर उभयाभास रूप अज्ञान में संतुष्ट होकर इस मनुष्य भव को रुद्रदत्त ब्राह्मण की तरह अपने अनंत दुखों का कारण तो नहीं बना रहे हैं। ___अत: सावधान ! अब हम भी अपने ज्ञाता स्वभाव को जाने पहिचानें, आत्मा का स्वभाव मात्र सबको जानने का है, उन्हें करने धरने या भोगने का नहीं - ऐसा जानकर अपने जीवन में सहज शांति धारण कर स्वरूप की साधना करें, अहमिन्द्रादि पद पाकर भी उसमें लिप्त न होते हुए वहाँ से चय कर अंधकवृष्टि राजा (भगवान नेमीनाथ के दादा) के भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले उस गौतम ब्राह्मण की तरह साधना करें न कि रुद्रदत्त ब्राह्मण की तरह अपने को अनंत दु:ख का भाजन - पात्र बनायें।
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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