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________________ श्री वीतरागाय नमः षट्लेश्या वृक्ष समता की प्राप्ति के लिये अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति का सूक्ष्मता से अवलोकरन करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि मेरी प्रत्येक प्रवृत्ति काषायिक भावों से रंगी होती है। मन से विचारने का, वचन से बोलने का शरीर से चेष्टा करने का जो कुछ भी काम मैं करता हूँ वह सब किसी न किसी कषाय से प्रेरित होता है। हमें केवल बाहर की प्रवृत्ति दिखाई देती है परन्तु वह कषाय नहीं, जिसकी गुप्त प्रेरणा से कि वह अस्तित्व में आ रही है, तीक्ष्ण प्रज्ञा के द्वारा उन्हें पकड़े बिना उनकी निवृत्ति का पुरुषार्थ-सम्भव नहीं, और उनसे निवृत्त हुए बिना समता का स्वप्न देखना वास्तव में साधना का उपहास है। कषायानुरञ्जित मेरी इन प्रवृत्तियों को शास्त्रों में लेश्या' शब्द के द्वारा अभिहित किया गया है। इनका स्पष्ट प्रतिभास कराने के लिए गुरुजनों ने तीव्रता-मन्दता की अपेक्षा इन्हें छह भेदों में विभाजित किया है – तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम। कलापूर्ण बनाने के लिए इन्हें छह रंगों से उपमित किया है, क्योंकि जीव के प्रतिक्षण के परिणाम इन कषायों से रंगे हुए होने के कारण ही चित्र-विचित्र दिखाई देते हैं। तीव्रतम भाव की उपमा कृष्ण या काले रंग से दी जाती है, तीव्रतर की नीले रंग से और तीव्रभाव की उपमा कापोत या कबूतर जैसे सलेटी रंग से दी जाती है। इसी प्रकार मन्द भाव की उपमा पीत या पीले रंग से, मन्दतर की पद्म या कमल सरीखे हलके गुलाबी रंग से, और मन्दतम भाव की उपमा शुक्ल या सफेद रंग से दी जाती है। यद्यपि जीव के शरीर भी इन छह में से किसी न किसी रंग के होते हैं, परन्तु यहाँ शरीर के रंग से प्रयोजन नहीं है, जीव के भावों में
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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