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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/७६ कर और खा। एक बार तो भिखारी को बहुत बुरा लगा। कहने लगा – 'तू भिखारी नहीं, तू तो सेठ है।' भिखारी ने आश्चर्य से पूछा – मैं सेठ हूँ ? सेठजी ने कहा – हाँ। भिखारी बोला – कैसे ? सेठजी ने कहा – तू अपना भिखारीपन छोड़ दे और यहाँ काम करने लग जा। ___ भिखारी ने कठिनाई से अपने मन को समझाया और सेठजी की बात को स्वीकार करने का मानस बनाया और सेठजी से कहा – मैं आपके यहाँ काम करने को तैयार हूँ, पर आप मुझे धोखा मत देना, मेरा कोई सहारा नहीं है, मेरे तो ऊपर आकाश, नीचे धरती और मध्य में भिक्षा ही सहारा है। सेठजी ने कहा – परिश्रम का फल मीठा होता है, तुम परिश्रम करते रहना, मैं तुम्हें विश्वास देता हूँ कि तुम्हें कभी धोखा न दूंगा। उसने सेठजी की बात मान ली। सेठजी ने उससे कहा - तू पहले स्नान कर ले। फिर मैं दूसरे कपड़े देता हूँ, पहन लो, खाना देता हूँ, खा लो। काम देता हूँ, वह करो। सेठजी के कहे अनुसार वह कार्य करने लगा, सेठजी के यहाँ बहुत नौकर थे उन्हें नौकर की जरूरत न थी, फिर भी उसे अपनी दुकान पर नौकर रख लिया। अब उससे प्रतिदिन काम लेते, खाना खिलाते और कुछ न कुछ समझाते रहते। वह काम करने में आलसी था। आखिर था तो भिखारी ही न। वह कुछ दिनों बाद जाने लगा, सेठजी ने समझाया तो वह रुक गया। सेठजी उसे नित्य कुछ न कुछ शिक्षा देते रहते थे, जिससे उसमें बहुत परिवर्तन आने लगा था। जब उसके एक माह पूरा हुआ और सेठजी ने उसे उसका वेतन दिया तो वह उछल पड़ा। वह सेठजी की प्रशंसा करने लगा – सचमुच आप सबसे बड़े परोपकारी हो। आपने मुझे प्रतिदिन दोनों समय खिलाया और धन भी दिया । सदा के लिए पेट भरने की कला भी सिखा दी।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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