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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६३ के आश्रित जो भी कार्य या क्रियाएँ होगी, वे धार्मिक नहीं होती। चामुण्डराय – तो क्या ये पाप क्रिया है ? नेमिचन्द्र – नहीं, यह आवश्यक नहीं कि जो अधार्मिक हैं, वे सब पाप क्रियाएँ ही हों; पुण्य क्रियाएँ भी होती हैं। ___ काललदेवी – तब फिर हमें तीर्थयात्राएँ नहीं करनी चाहिए ? पर इस यात्रा में तो आप भी सम्मिलित हैं गुरुदेव ! नेमिचन्द्र – भौतिकवादी करता है, आत्माभिमुखी से होती है। तुम्हीं बताओ हम सब गोम्मटेश्वर के दर्शनार्थ जा रहे हैं। हमें वहाँ पहुँचना था। मार्ग में पड़ाव डालने की क्या आवश्यकता थी ? चामुण्डराय - यह तो अनिवार्य था गुरुदेव ! ऐसा कोई त्वरित गतिमान वाहन नहीं कि हम सीधे वहीं पहुँच जाते। काललदेवी – आकांक्षा तो यही है कि उड़कर दूसरे ही क्षण पहुँच जावें। पर यह संभव जो नहीं है। यद्यपि रुकने के समय गंवाने में मन खिन्न ही होता है। नेमिचन्द्र - बस यह बात मुमुक्षु की होती है। जब तक उसका पुरुषार्थ उग्र-उग्रतम हो स्वस्थित नहीं होता; तब तक वह क्रमशः दया, दान, पूजादि अथवा व्रत, समिति, गुप्तिरूप क्रियाओं में प्रवृत्त होता है। चामुण्डराय – अर्थात् प्रवृत्त होना उसका लक्ष्य नहीं, विवशता है। भलीभाँति समझ गया गुरुदेव ! काललदेवी – तब धार्मिक क्रियाएँ कैसी होती हैं गुरुदेव ? नेमिचन्द्र – धर्म अर्थात् स्वभाव । आत्मा का स्वभाव है ज्ञायकपना; ज्ञान में केन्द्रित हो जाना । आत्मा स्व में प्रतिष्ठित हो जाये, यह उसकी धार्मिक क्रिया है एवं राग-द्वेषादि रूप विकृत होना अधार्मिक है। . सेवक – स्वामिन् ! चलने की पूर्ण व्यवस्था हो गई है, शकट तैयार हैं, केवल तंबू उखाड़ना है। आप जैसा आदेश दें।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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