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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६१ नेमिचन्द्र – (मुस्कराते हुए) यह हमारा अपना निर्णय है, चामुण्डराय! चामुण्डराय – निर्णय किस आधार पर ले रहे हैं आप ?
नेमिचन्द्र - ले नहीं रहे, ले चुके हैं वत्स ! तुम अपनी बात पूरी करो। क्या कहना चाहते थे ?
चामुण्डराय – गुरुदेव ! आज उषाकाल में मैंने एक विलक्षण स्वप्न देखा है। तेजस्वी महिला हमारे शकट (रथ) के सम्मुख खड़ी हो पथ रोक कर कह रही है कि तुम लौट जाओ। आगे बढ़ने का दुस्साहस मत करो। यह अरण्य मानवगम्य नहीं है।
(माता काललदेवी आकर पुत्र की बात सुनने लगती हैं।)
काललदेवी - ऐसी शंका क्यों कर रहे हो वत्स ! यात्रा से तुम क्लांत हो गये हो ? अतएव अब चेतन मन की कल्पना नयनों में साकार हो आई है। तुम लौट सकते हो। पर मेरी यात्रा तो भगवान बाहुबली के चरणों में ही विराम लेगी।
चामुण्डराय – मुझ पर इतना अविश्वास क्यों माँ श्री ! दर्शनाभिलाषा जितनी आपकी बलबती है, मेरी उत्कण्ठा उससे न्यून नहीं। इस पवित्र लक्ष्य हेतु ऐसी यात्रा वर्षों करना पड़े, तब भी मैं पीछे हटने वाला नहीं हूँ। संकल्प का धनी है चामुण्डराय।
काललदेवी - किन्तु चौरासी युद्धों का विजेता, वीरमार्तण्ड, समरधुरन्धर, वैरीकुलकालदण्ड के संकल्प ने घुटने टेक दिये एक तुच्छ स्वप्न के सम्मुख, जबकि स्वप्न कभी सत्य नहीं होते।
नेमिचन्द्र-काललदेवी! चामुण्डराय का स्वप्न सुखद भविष्य की सूचना दे रहा है। हमारे निमित्त ज्ञान से भी यात्रा स्थगित करने की पुष्टि होती है।
काललदेवी - आप भी ऐसा कह रहे हैं गुरुदेव ! क्या हम बिना दर्शन किये लौट जायेंगे।
नेमिचन्द्र - लौटना ही होगा काललदेवी ! सब मनोरथ पूर्ण नहीं होते।