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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/५९ सँवारा होगा ? महान् मनोबल संचित करने हेतु आत्मा ने अथक प्रयास किया होगा ? झूथाराम - (स्नेह से पीठ थपथपाते हुये) बड़ा पागल है रे, अरे जीवन भर जिसने अपनी इच्छाओं पर विजय पाई हो, जो अहर्निश परिग्रह त्यागकर अपने सहज स्वभाविक भावों को प्रश्रय देता रहा, क्या उस श्रेष्ठ पुरुष की अन्तिम अभिलाषा पूरी न होगी ? फतेहलाल ! एक बात अवश्य है बेटा, अमरचंदजी ने ध्यानरूपी अग्नि में रागद्वेष रूपी भावों को झोंका होगा। चिरसंचित शुभ परिणामों के फलस्वरूप ही आयुकर्म के निषेक इन पापियों के हाथ उन तक पहुँचने के पूर्व ही पूर्ण हो गये। और उन्होंने पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए अपने आत्मस्वभाव का विचार व भेदज्ञान की भावना भाते हुए स्वावलम्बन पूर्वक देह का त्याग किया है। फतेहलाल - स्वावलम्बन ही उनके जीवन का आधार बना। झूथाराम – (उल्लसित हो) भाग्यवान् थे वे नर और विलक्षण है उनकी आहुति, (दोनों के नयन पलकों में से कुछ बूंदें ढुलक आती हैं।) ॥पटाक्षेप। - - श्रीमती रूपवती 'किरण' बैरी हो वह भी उपकार करने से मित्र बनता है, इस कारण जिसको दान-सम्मान आदि दिये जाते हैं वह शत्रु भी अपना अत्यंत प्रिय मित्र बन जाता है तथा पुत्र भी इच्छित भोग रोकने से तथा अपमान-तिरस्कार आदि करने से क्षणमात्र में अपना शत्रु हो जाता है। अतः संसार में कोई किसी का मित्र अथवा शत्रु नहीं है। कार्य अनुसार शत्रुपना और मित्रपना प्रगट होता है। स्वजनपना, परजनपना, शत्रुपना, मित्रपना जीव का स्वभावतः किसी के साथ नहीं है। उपकार-अपकार की अपेक्षा से मित्रपना-शत्रुपना जानना। वस्तुतः कोई किसी का शत्रु-मित्र नहीं है। अतः किसी के प्रति राग-द्वेष करना उचित नहीं है। - श्री भगवती आराधना, आचार्य शिवकोटि
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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