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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/५५ सिद्धान्त है मृत्यु नहीं आई तो बुलाना उपयुक्त नहीं और आ ही गई तो उसका प्रतिकार करना उचित नहीं। इसे वे मरणोत्सव की संज्ञा देते हैं।
२. नागरिक - है यही सत्य। जब मरना ही है तो हंसकर मरना श्रेष्ठ है। रोने चीखने से मौत लौटने वाली नहीं, पर यह सब बहुत दुःसाध्य है। अपने जीवन में तो कथनी व करनी में जमीन आसमान का अन्तर है।
१. नागरिक - धैर्यवान पुरुष ही इस मृत्यु के अधिकारी हैं। धैर्य के बिना शान्ति कहाँ? वे अपना मरण सुधारने के लिए जीवन भर विरक्ति का अभ्यास करते हैं। तब कहीं मन के अनुकूल निवृतिमय प्रवृत्ति होती है।
२. नागरिक - दीवानजी तो सचमुच विरक्त हैं। जीवन भर लाखों अशर्फियों का गुप्त दान दिया। सरल प्रकृति, उदार, पुण्यवान्, करुणा के तो साक्षात् सिन्धु ही हैं।
१. नागरिक - कल प्रात:काल उन्हें फाँसी होगी। जयपुर की जनता उनके अन्तिम दर्शन करने विशाल संख्या में पहुंचेगी।
२. नागरिक - क्यों नहीं, जाना ही चाहिए। शहर में जहाँ देखो, वहाँ यही चर्चा है। अब ऐसा श्रेष्ठ पुरुष जीवन में पुनः मिलना दुःसाध्य नहीं अपितु असाध्य भी है। (कुछ सोचकर) क्यों भाई ! जनसमूह का जाना व्यर्थ तो न होगा ? ये दुष्ट फिरंगी दर्शन करने भी देंगे ?
१. नागरिक - (सिर हिलाते हुए) हाँ ! यह बात अवश्य विचारणीय है। मेरे ध्यान से तो हम लोगों को परोक्ष में ही श्रद्धाजंलि भेंट करनी होगी।
२. नागरिक - ये बेईमान फिरंगी देशवासियों में पारस्परिक विद्वेष की आग भड़काते रहते हैं।
१. नागरिक - अरे भैया ! इन नीचों ने संस्कृति का सर्वनाश ही कर डाला। विश्वास नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। देश, समाज, धर्म सभी को इन फिरंगियों ने छिन्न-भिन्न कर डाला। न जाने अपने देश से इनका काला मुँह कब होगा ?
२. नागरिक - वे दिनों-दिन पैर फैला रहे हैं। साम्राज्य विस्तार की लालसा ने उन्हें अधिक पतित बना दिया है। इसकी पूर्ति में वे अति घृणित