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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १ -१८/४३ दूसरा श्रेष्ठि – ऐसे दयालु सहृदय पर दुख कातर व्यक्ति मैंने अपने जीवन में दूसरा नहीं देखा भाई ! मेरे काले केश श्वेत हो गये । - पहला श्रेष्ठि – सैकड़ों रुपया दान देना उनका नित्यप्रति का व्यवसाय था। उसमें उन्होंने कभी अन्तर नहीं आने दिया । - चौथा श्रेष्ठि – इतना दान देते हुए लेने वाले की मान-प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने दी। तीसरा श्रेष्ठि - राधाबाई का कौन बेटा था ? उस वृद्धा की कैसी सेवासुश्रुषा की। मल-मूत्र तक उठाया । ग्लानि उन्हें छू भी नहीं पाई थी। पहला श्रेष्ठ – फतेहलाल ! उठो बेटा । सो जाओ, दिनभर हो गया तुम्हें इसीप्रकार बैठे-बैठे । तनिक विश्राम कर लो। धीरज धरो, भगवान करे सब कुशल मंगल हो । - - दूसरा श्रेष्ठ – माँ को धीरज बंधाना बेटा । तुम खुद समझदार हो । हम लोग चलें, कल फिर आयेंगे। (सबका प्रस्थान, जाते-जाते...... ..) पहला श्रेष्ठ - पिता के गुणों का प्रतिबिम्ब है फतेहलाल । (एक ओर से सबका जाना और दूसरी ओर से श्रेष्ठि चमनलालजी का आना। फतेहलाल खड़े होते हैं, इतने में ही चमनलाल आकर फतेहलाल के पैरों पर सिर रख कर रोने लगते हैं ।) - फतेहलाल - (आश्चर्य से) अरे चमनलालजी ! आप रो रहे हैं । (हाथ पकड़कर उठाने की चेष्ठा करते हुये ) क्या बात है ? सुनिये हमने आपके साथ कोई उपकार नहीं किया । पिताजी की आज्ञानुसार मैंने लड्डू भिजवाये थे इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं जानता। आपके पुण्योदय से यदि कुछ चमत्कार हुआ हो तो आप जानें । 1 1 चमनलाल (दृढ़ता से पैर पकड़े हुये परिताप भरे स्वर से ) भैया फतेहलाल, मैंने घृणित अपराध किया है। मेरे ही कारण दीवानजी का जीवन सघन संकट में पड़ गया है।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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