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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२९ - विलक्षण आहुति राजा जगतसिंह - जयपुर नरेश। दीवान झूथारामजी - जयपुर के महामात्य। दीवान अमरचन्दजी - जयपुर के अमात्य । फतेहलालजी - दीवान अमरचन्दजी के पुत्र । एजेंट स्मिथ - ईस्ट इंडिया कम्पनी का अफसर। एजेंट व दो साथी - छावनी के अधिकारी। डॉक्टर, जज, जेलर, चाँडाल, सेवक आदि। प्रथम दृश्य ... समय : सायं। (दीवान अमरचन्दजी अपने बैठकखाने में तख्त पर बैठे हैं। पास ही कप्तान स्मिथ बैठे हैं। कमरा शाही ढंग से सजा हुआ है। दीवान अमरचन्दजी अपनी शुद्ध अहिंसक भावना व कार्यों के लिए जयपुर राज्य के बाहर भी विश्रुत हो चुके हैं। कप्तान स्मिथ को अमरचन्दजी से बातें करने में आनन्द आता है। यही कारण है कि वे बातों में समय का ध्यान नहीं रखते।) स्मिथ – दीवान साहब, मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मैंने सुना कि आप अकेले ही शेर के पिंजड़े में घुस गये और वह भी निहत्थे। अमरचन्द – कप्तान साहब ! आश्चर्य की कोई बात नहीं। शेर भी हम आप जैसा ही एक प्राणी है। यदि हमारे हृदय में दूसरे के प्रति बुराई ने जन्म न लिया हो तो कोई कारण नहीं कि दूसरा प्राणी हमारे प्रति बुरा व्यवहार करे। स्मिथ – फिर भी शेर बूंखार दुष्ट जानवर होता है, उसका काम ही है अन्य प्रणियों को मारना। अमरचन्द – खूखार होते हुए भी वह हमारी तरह सुख-दुख, शत्रुमित्र का अनुभव करता है। उसकी आत्मा और हमारी आत्मा में तनिक भी
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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