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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२४ दृष्टि उसके ऊपर पड़ गई तथा पापकर्म के उदय से वह उस पर कामासक्त हो गया। वह न तो उसके बिना रह सका और न कामाग्नि को सहन कर सका। इस कारण वह मूर्ख न्यागमार्ग का उल्लंघन करके बलजोरी से उसका हरण कर ले गया। स्त्री के वियोग से सेठ पुत्र सुदत्त का हृदय भी व्याकुल हो गया तथा वह अपने को पुण्यहीन समझकर अपनी निंदा करने लगा। मैंने न तो पूर्व भव में धर्म का पालन किया था, न तप किया था, न चारित्र का पालन किया था, न दान दिया था और न ही जिनेन्द्र देव की पूजा की थी, इसकारण मेरे पापकर्मोदय से मेरी रूपवती स्त्री का राजा ने जबरदस्ती हरण कर लिया। ___संसार में सुख देने वाले इष्ट पदार्थों का जो वियोग होता है तथा स्त्री, धन आदि का जो वियोग होता है तथा दुष्ट, शत्रु, चोर, रोग, क्लेश, दु:ख आदि दुष्ट अनिष्ट पदार्थों का जो संयोग होता है वह सब पापरूप शत्रु द्वारा किया हुआ होता है। मनुष्यों को जब तक पूर्वभव में उपार्जित अनेक दुःख देने वाले पापकर्मों का उदय है वहाँ तक उसको उत्तम सुख कभी नहीं मिलता है। यदि पापरूपी शत्रु न हो तो मुनिराज घर छोड़कर वन में जाकर तपश्चरणरूपी तलवार से किसको मारते हैं ? संसार में वही सुखी है जिसने अलौकिक सुख प्राप्त करने के लिये चारित्ररूपी शस्त्र के प्रहार से पापरूपी महाशत्रु को मार दिया है। इसलिये मैं भी सम्यक्चारित्ररूपी धनुष को लेकर ध्यानरूपी बाण से अनेक दुःखों के सागर पापरूपी शत्रु का नाश करूँगा। इस प्रकार हृदय में विचार करके सेठ पुत्र सुदत्त काललब्धि प्रकट होने के कारण स्त्री, भोग, शरीर और संसार से विरक्त हुआ। तत्पश्चात् वह दीक्षा लेने के लिये सुदत्त नामक तीर्थंकर के समीप पहुँचा और शोकादिक को त्यागकर तपश्चर्या के लिये तैयार हुआ समस्त जीवों का हित करने वाले तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करके उसने मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने वाला संयम धारण किया। वह विरक्त होने के कारण बहुत दिनों तक शरीर को दुःख पहुंचाने वाले कार्योत्सर्ग आदि अनेक प्रकार की कठिन तपस्या करने लगा। मोक्ष प्राप्त करने के लिये उन मुनिराज ने प्रमाद रहित होकर मरण पर्यंत
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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