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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२२
जब जागो तभी सबेरा (नलिनकेतु आदि मोहांध जीवों की कथा) पूर्व विदेह क्षेत्र में मंगलावती नाम का मनोहर देश है। वह मंगलावती देश श्री जिनेन्द्र देव तथा मुनियों की वंदना, यात्रा, पूजा-प्रतिष्ठा आदि के सैंकड़ों उत्सवों से धर्मध्यान का कारण है। इसलिए उसका ‘मंगलावती' नाम सार्थक है। बहुत पुरानी बात है, मंगलावती में राजा क्षेमकर राज्य करते थे। उनके वज्रायुद्ध नाम का (भविष्य में होने वाले तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ का जीव) चक्रवर्ती पुत्र था। वे इसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर उसपद को विभूषित करने वाले महापुरुष थे।
जब राजा वज्रायुद्ध सभा में सिंहासन पर विराजमान होते और उनके ऊपर चँवर ढुलते, तब वे राजा इन्द्र समान लगते । चक्रवर्ती अपने तथा दूसरों के कल्याण के लिये तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिये सिंहासन पर विराजमान होकर अपने भाई-बन्धु, मित्र राजाओं तथा सेवकों को धर्मोपदेश देते थे।
एक दिन एक विद्याधर डर से घबड़ाया दौड़ता हुआ आया और उसने अपनी रक्षा करने के लिये चक्रवर्ती की शरण माँगी। उसके पीछे-पीछे सभा भवन को कंपाती हुई एक विद्याधरी आई, वह क्रोधरूपी अग्नि से जल रही थी तथा हाथ में खुली तलवार लेकर विद्याधर को मारना चाहती थी। उस विद्याधरी के पीछे एक वृद्ध विद्याधर आया। उसके हाथ में गदा थी। वह इन दोनों के बैर से परिचित था। वृद्ध विद्याधर राजा वज्रायुध को नमस्कार करके कहने लगा कि हे स्वामिन् ! आप दुष्टों को दण्ड देने में और सज्जनों को पालने में चतुर हो। दुष्टों को उचित दण्ड देना और सज्जनों का पालन करना क्षत्रियों का धर्म है और आप हमेशा इस धर्म का पालन करते हो। अतः आप जैसे धर्मात्मा को अवश्य ही दुष्ट विद्याधर को दण्ड देना चाहिये, क्योंकि वह अन्यायी है, पापी है। हे देव ! यदि तुम इसका कारण जानना चाहते हो तो मैं जो कहता हूँ उसे मन लगाकर सुनो।
यह जम्बूद्वीप धर्म का स्थान है तथा देव, विद्याधर और मनुष्यों से भरा