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________________ meroonumernama Sade Marta PA N M 2000 । :: . woooooltisonomidiommsmomentisthootansatta जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/64 रखते हैं। सूरदत्त मुनिराज भी उग्र पुरुषार्थ द्वारा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट NaI करके घोर तप करके चार घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं और पश्चात् अघातिया कर्मों का भी नाश करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। मुनिराज नागदत्त भी सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र प्रगट करके चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं और पश्चात् चार अघातिया कर्मों का भी नाश करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। अहो ! धन्य है ऐसे मुनिराज एवं उनकी मुनिदशा को, कि जिनका वीतरागी समभाव देखकर क्रूर परिणामी डाकू भी मुनि होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। व -नागकुमार चरित्र से साभार बैरी हो वह भी उपकार करने से मित्र बन जाता है, इस कारण जिसको दान-सम्मान आदि दिये जाते हैं, वह शत्रु भी अपना अत्यन्त प्रिय मित्र बन जाता है तथा पुत्र के भी इच्छित भोग रोकने से तथा अपमान तिरस्कार आदि करने से वह भी क्षणमात्र में अपना शत्रु हो जाता है। अत: संसार में कोई किसी का मित्र अथवा शत्रु नहीं है । कार्य अनुसार शत्रुपना और मित्रपना प्रकट होता है। स्वजनपना, परजनपना, शत्रुपना, मित्रपना जीव का स्वभावत: किसी के साथ नहीं है। उपकार-अपकार की अपेक्षा से मित्रपना-शत्रुपना जानना। वस्तुत: कोई किसी का शत्रुमित्र नहीं है। अत: किसी के प्रति राग-द्वेष करना उचित नहीं है।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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