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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/48 तब एक निमित्तज्ञ विश्वदेव ब्राह्मण ने राजा से कहा कि राजन् ! सोमशर्मा को शकुन-अपशकुन का पता नहीं चलता। यह मुनिराज तो समस्त प्राणियों का हित करने वाले हैं। इनके दर्शन से तो अपना इच्छित कार्य तुरन्त पूर्ण हो जाए - इनके दर्शन से तो अपने लिए शकुन हुए हैं। इस संदर्भ में उसने अनेक शास्त्र आधार और युक्तियाँ देकर बात की और कहा कि राजन् ! इन मुनिराज के दर्शनरूपी महा-शकुन तो यह बताते हैं कि - "आपको हाथी देने के लिये स्वयं राजा वसुपाल को यहाँ आना चाहिये ।" प्रभात होते ही सचमुच वसुपाल राजा ने सोमप्रभ राजा को हाथी भेंट करके सन्मान किया और प्रसन्न होकर राजा ने वापिस अपने नगर की तरफ प्रस्थान कर दिया। ___पुरोहित सोमशर्मा ने पूर्व-बैर के कारण ध्यानाविष्ट मुनिराज सोमदत्त की तलवार से हत्या कर दी। प्रातःकाल जब महाराज सोमप्रभ को ज्ञात हुआ कि सोमशर्मा ने मुनिराज की हत्या की है, इससे राजा ने सोमशर्मा से मुनिहिंसा के कारण पुरोहित पद छीन लिया और कठोर से कठोर दण्ड दिया। दुष्टबुद्धि सोमशर्मा को मुनि हिंसा के पाप से गलित कोढ़ निकल आया और वह सात दिन तक भयानक पीड़ा भोगते हुए मरकर तुरन्त ही सातवें नरक में जा गिरा।' वहाँ के 33 सागरपर्यंत महादुःख भोग कर नरक से निकला और एक हजार योजन का मच्छ हुआ, वहाँ भी अनेक प्रकार की पीड़ा सहन करके मरकर छठवें नरक में जा गिरा, वहाँ बाईस सागर तक भयंकर दुःख भोगे, वहाँ से निकलकर भयानक सिंह हुआ। और वहाँ की आयु पूर्ण करके पाँचवे नरक में जा गिरा। वहाँ भी असहनीय दुःख भोगकर भयंकर काला सर्प हुआ। वहाँ से आयु पूर्ण करके चौथे नरक गया और वहाँ भी महादुःख भोगकर बाघ हुआ। वहाँ से मरकर तीसरे नरक का नारकी हुआ। वहाँ से निकलकर दुष्ट विकराल पक्षी हुआ और वहाँ से मरकर दूसरे नरक का नारकी हुआ। वहाँ भी दुःख भोगकर सफेद बगुला हुआ। वहाँ भी पाप करके पहले नरक गया। हे राजन् ! वहाँ एक सागर पर्यन्त दुःख भोगकर वहाँ से निकलकर वही तुम्हारे यहाँ पूतिगंध कुमार हुआ है।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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