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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/42 परिचय देती हुई आगे बढ़ती जाती थी। रोहिणी का मन किसी राजकुमार पर नहीं ठहरता था। आगे बढ़ते हुए दासी ने कहा – हे स्वामिनी ! यह वीतशोक राजा का पुत्र अशोक है। यह समस्त गुणों का सागर है। इसका रूप सहज ही कामदेव को पराजित करने वाला है, मानो किसी देव अथवा विद्याधर जैसा रूप है। रोहिणी ने कुमार अशोक के रूप-गुण देखकर तुरन्त ही कुमार अशोक को वरमाला पहिना दी। रोहिणी के पिता ने कुमार अशोक के साथ उसका विवाह निश्चित कर दिया और कुमार अशोक ने श्री जिनेन्द्र भगवान की महामह पूजा करके मंगल मुहूर्त में राजकुमारी रोहिणी के साथ विवाह किया और कितने ही समय तक अपनी ससुराल में रह कर सुख भोगे। पश्चात् अशोक-रोहिणी ने अपने निज नगर हस्तिनापुर में आकर माता-पिता आदि परिवारजनों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लिया तथा अपने-अपने कर्मों को करने में जुट गये। ___एक दिन पिता वीतशोक को उल्कापात देखकर वैराग्य भाव जागृत हुआ, उन्होंने पुत्र कुमार अशोक को राजगद्दी पर बैठाकर जिनदीक्षा ले ली और उग्र तप करके कर्मनाश कर मुक्तावस्था को प्राप्त किया। पिता के दीक्षित होने पर होनहार कुमार अशोक ने कुशलता पूर्वक राज्य का संचालन किया। रोहिणी के सुन्दर आठ पुत्र और चार पुत्रियाँ हुईं। उनमें से सबसे छोटे पुत्र का नाम लोकपाल था। एक बार अशोक-रोहिणी अपने समस्त पुत्रपुत्रियों के साथ राजमहल की छत पर बैठे हुए मीठी-मीठी आनन्दकारी बातें कर रहे थे। इतने में रोहिणी ने नीचे गली में देखा कि अनेक स्त्रियाँ बालों को बिखेरकर घेरा बनाकर छाती कूटती हुई रुदन कर रही थीं, आक्रन्दन कर रही थीं। यह देखकर रोहिणी को आश्चर्य हुआ कि यह किस प्रकार की नाट्यकला है ? मुझे तो बहत्तर कलाओं का ज्ञान है, परन्तु उनमें तो मैंने - ऐसी कोई कला नहीं देखी। अतः वह विस्मयता पूर्वक दासी से पूछती है
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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