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________________ ...... जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/22 किंपाकफल के सामान दुःखदाई है, बाह्य में मनोज्ञ लगे उससे क्या ? भोग · तो अपने और पर को संतापकारी ही हैं। समस्त विषय शास्त्र से विरुद्ध है। परस्त्री-परधन हरण, माँस भक्षण आदि तो महापाप हैं। ऐसे पापों को करने. वाले नरक-निगोद में जाते हैं - इसप्रकार रानी चन्द्राभा ने राजा मधु को सम्बोधित किया। . ... . .... . तब राजा मधु को साक्षात् वैराग्य हो गया। भोगरूपी मदिरा को तजकर अंति-आदर से वह राजा मधुरानी चन्द्राभा से कहता है कि हे सत्यभासिनी! तूने सत्य ही कहा है। ऐसा कार्य भले पुरुष के योग्य नहीं है। उससे नरकादिक की पीड़ा उत्पन्न होती है। ऐसा करने वाले महापापी इस भव में दु:खी होकर अपयश प्राप्त करते हैं और परभव में नरक जाते हैं। मेरे जैसा राजा ही. ऐसा निंद्यकर्म करता है तो प्रजा को कौनं रोकेगा? जो अपनी स्त्री में भी अधिक राग करता है, वह भी निंद्य एवं तीव्र कर्मबन्ध का कारण है, तब परस्त्री . सेवन की तो बात ही क्या करें ? - अरेरे....! परस्त्री सेवन के समान अन्य कोई पाप नहीं है। राजा मधु. को स्वयं के द्वारा रानी चन्द्राभा को छल एवं ताकत के बल पर अपने पास रोक कर रखना.- अब एक निकृष्टतम पापरूप लग रहा था और उस पाप के प्रायश्चित करने के लिए वह अन्तरंग में छटपटाने लगा। वह बारम्बार विचार कर रहा था कि यह मनरूपी मत्त हाथी को ज्ञानरूप अंकुश द्वारा रोकने पर भी यह खोटे मार्ग में जाता है। इस मनरूप मतंग को तीव्रतपरूप अंकुश . द्वारा खोटे मार्ग से वापस लाकर सही मार्ग में चलाने वाले धन्य हैं। कामभोंग की वासनां से उन्मत्त हुए मनरूपी हाथी को तप-संयमरूप दण्ड द्वारा, जब तक वापस नहीं मोड़ा जाता, तब तक उस पर चढ़ने वाले को भय ही होता है। ऐसा कहकर राजा मधु ने मन का वेग रोककर ज्ञानरूपी जल से बुद्धि को निर्मल किया। अब राजा मधु भवातप की शान्ति के लिये मुनिव्रत धारण करने को उद्यमी हुआ ही था कि सोने में सुहागा की तरह उसी समय एक विमलवाहन नाम के मुनिराज अयोध्या के सहस्रामृत नामक वन में एक हजार मुनियों सहित पधारे। मुनियों का आगमन सुनकर राजा मधु और कौटभ
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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