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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/15 भी मुनियों का महात्म्य देखें - ऐसा विचारकर वे दोनों भाई भी अभिमान सहित मुनियों के समीप पहुँच गये। __ तब एक सात्विक नामक मुनि गुरु से अन्यत्र विराजमान थे। उन दोनों ब्राह्मण पुत्रों को देखकर उन मुनिराज ने विचार किया कि ये दोनों अभिमानी और क्रोधी हैं। इस कारण गुरु के पास जाकर कदाचित् विवाद करेंगे, सभा में क्षोभ उत्पन्न करेंगे। श्रीगुरु की सभा सागर के समान गम्भीर है और श्रीगुरु धर्म का उपदेश करते हैं। इसलिये इन दोनों को वहाँ नहीं जाना चाहिए। - इस प्रकार विचार करके जिनके अवधिज्ञानरूपी नेत्र हैं - ऐसे सात्विक नामक मुनि ब्राह्मण-पुत्रों से कहने लगे कि ब्राह्मण युगल यहाँ आओ। तब दोनों भाई सात्विक मुनि के पास जाकर बैठ गये। उन्हें वाद-विवाद के गर्व . सहित देखकर मुनि के पास अन्य अनेक लोग आकर एकत्रित हो गये। मुनि ने विप्रों से पूछा कि तुम कहाँ से आये हो ? तब वे दोनों बोले कि हम इसी गाँव से आये हैं। तब मुनि ने कहा कि यह तो मैं भी जानता हूँ कि तुम शालीग्राम के वासी हो, परन्तु हम तो यह पूछते हैं कि इस संसार में भ्रमण करते हुए तुम किस गति से आये हो ? तब विप्र-पुत्र बोले - 'पुनर्जन्म होता' - हम यह नहीं मानते; क्योंकि पुनर्जन्म के भय से वर्तमान में प्राप्त सुखों को छोड़ना कहाँ की बुद्धिमानी है ? ये सब बातें तो जगत के भोले-भाले प्राणियों को डराने के लिए आप जैसे धर्मधारी कहते हैं - इसमें सत्यता तो किचित् भी भासित नहीं होती। हमारा पुनर्जन्म हुआ है' - इसका आपके पास क्या प्रमाण है ? क्या आप यह सिद्ध कर सकते हैं ? ___ तब मुनिराज सात्विक ने कहा - 'तुम कहाँ से आये हो ? यह मैं जानता हूँ, और मैं उसे सिद्ध भी कर सकता हूँ।' फिर विलम्ब किस बात का। सिद्ध कर दो न ! तब मुनिराज सात्विक ने कहा – तुम दोनों पूर्वभव में इसी गांव के समीप शियाल थे। तुम दोनों को पूर्वभव में भी परस्पर प्रीति थी। एक बार
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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