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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/75 अजबराय - आपके अभाव में समाज की कितनी क्षति होगी, इसका विचार किया आपने? पण्डित टोडरमलजी – होनहार अमिट है। किसी भी प्राणी के रहने न रहने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है। अतः इन संकल्प-विकल्पों को छोड़कर शान्ति से इस देह को छोड़ने दो। इसी में सार है। ___ अजबराय - (क्रोध पूर्वक हाथ पटकते हुये) मैं जाता हूँ। कुछ और प्रयत्न कर देखू। पण्डित टोडरमलजी- अरे भाई ! अपनी भावनाओं को कलुषित मत करो। आत्मा अजर अमर है। राग-द्वेष से पार वीतरागता की ओर झाँको। शान्ति का अगाध सिंधु लहरा रहा है। उसी में प्रतिक्षण अवगाहन करो। अजबराय - आपकी बातें अलौकिक हैं पण्डितजी ! किन्तु वे इस लोक में कार्यकारी नहीं हैं। __ पण्डित टोडरमलजी - आत्मा का लोक ही निराला है बंधु ! वहाँ विषमता नहीं, अनन्त समता है। (अजबराय जाने लगते हैं। टोडरमलजी हाथ पकड़कर) रुको बंधु ! तुम क्या कर सकोगे। जब दीवान रतनचंदजी के प्रयत्न निष्फल हो गये तो....(अजबराय नहीं नहीं कहते हुये तेजी से निकल जाते हैं) पट्टाक्षेप दृश्य द्वितीय स्थान-दीवान रतनचंदजी की बैठक समय : प्रात: दस बजे (अजबराय, त्रिलोकचंदजी पाटनी, श्रीचंदजी सौगानी, महारामजी दीवान रतनचंदजी से टोडरमलजी के विषय में चर्चा हो रही है।) त्रिलोकचंद - दीवानजी ! शासन के इस नृशंस व्यवहार से हमारा मन क्षुब्ध हो उठा है। दीवान रतनचंद - बंधुओ ! मैंने महाराज को समझाने का भरसक यत्न किया। पर वे अपना आदेश वापिस लेने को तैयार नहीं हैं।
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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