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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/52 कैकेयी - (दृढ़तापूर्वक) हाँ ! आप कर रहे हैं। यदि आप भेद नहीं समझते तो इतना सोच-विचार क्यों ? . दशरथ - यह कर्त्तव्य की कसौटी है देवी ! इसमें भेद को स्थान कहाँ ? हाँ, यदि तुम्हारे वचनानुसार भरत को राज्य देते हैं तो वह अनुचित होगा। हम लोक निंदा के पात्र होंगे। ___ कैकेयी- इस निंदा में भी मुझे सुख है नाथ ! मेरा यह प्रथम और अन्तिम वचन था और मैं यह भी जानती हूँ कि सभी व्यक्तियों की अभिलाषा पूरी नहीं होती। दशरथ - तुम अपनी माँग का दृढ़ निश्चय कर चुकी हो ? कैकेयी- परिवर्तन का कोई कारण नहीं। दशरथ - (निराशा से भर कर) समझ गये। जिस गृह में घृणा का विष प्रवेश कर जाता है; वहाँ आनन्द के फूल नहीं खिल सकते। एक बार पुनः शान्ति से विचार करो। क्या यह कार्य तुम्हारी प्रशंसा में चार चाँद लगा देगा? कैकेयी- राजन् ! माँ की ममता प्रशंसा की भूखी नहीं है। दशरथ - तुम राम की भी माँ हो कैकेयी ! तुम्हारी ही गोद में वह फलाफूला है। राम ने तुम्हें ही अपनी माँ समझा है। कैकेयी-अभी तक मैं भी यह समझती रही हूँ, पर समझने भर से तृप्ति नहीं होती महाराज ! यथार्थता को कल्पना की ओट नहीं किया जा सकता। दशरथ - ऐसी तो तुम कभी नहीं थी कैकेयी ! तुममें अनिंद्य सौन्दर्य एवं गुणों का अद्भुत समन्वय देखकर विद्वज्जन हर्षित होते हैं। राजगुरु तुम्हारी प्रशंसा करते नहीं थकते। देवी कौशल्या तुम्हारी विद्वता का लोहा मानती हैं। यह क्या तुम्हारा छद्मवेश था कैकेयी ! क्या वह सौन्दर्य अत्यन्त लुभावने विषैले इन्द्रायण फल की भाँति था अथवा जलता हुआ अंगार है; जिसके ताप में समस्त परिवार संतप्त हो झुलस जाएगा। कैकेयी-राजन् ! आप कहने के लिये स्वतन्त्र हैं। कदाचित् आपके अहं
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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