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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/44
मालिन - सब आपका पुन्नप्रताप है महारानीजी ! जुही ने रातभर जागकर डलिया सजाई है । तड़के ही उसने मुझे जगा दिया।
कैकेयी - (गले का हार उतार कर देते हुये ) लो ये जुही को दे देना । आज राम का राज्याभिषेक है न ! जुही को भी जरूर लाना !
मालिन अवश्य लाऊँगी। वह तो कल से ही उतावली है।.....जुगजिओ महारानी जी ! 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' । अच्छा, आज्ञा महारानी जी ! चलूँ न ?
जुग
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कैकेयी – जाओ। (कैकेयी को सुधि आती है) अरे ! तुम मुद्रिका ले मैं तो भूल ही गई थी ।
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मालिन - (सकुचाते हुये लेकर) जय हो महारानी जी की ! (मालिन का प्रस्थान, दूसरी ओर से दासी मंथरा का प्रवेश)
मंथरा - आज बहुत प्रसन्न दिख रही हैं महारानी जी !
कैकेयी - प्रसन्नता का विषय ही है मंथरा ! राम का राज्याभिषेक होगा । मेरा राम राजा होगा और सीता राजरानी ।
मंथरा - और आप ?
कैकेयी
(गर्व पूर्वक) मैं राजमाता।
मंथरा - आप भूलती हैं मँझली रानी ! राजमाता के पद पर आसीन होंगी बड़ी रानी कौशल्या जी !
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कैकेयी - पागल ! जीजी और मुझमें कोई अन्तर है क्या ? हम सब एक ही तो हैं।
मंथरा - अन्तर स्पष्ट है, भले ही मुझे पागल मानो ।
कैकेयी - तू कहना क्या चाह रही है मंथरा ! क्या ऐसा हो सकता है कि मेरा राम राज्य पाकर मुझे भुला देगा ? जीजी की दृष्टि में 'मैं' क्या तिरस्कृत हो जाऊँगी ?
मंथरा - पर आप दुनिया की दृष्टि में तो हो सकती हैं।