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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/35 रहा करती थी। इसके मुख को देखकर विवश हो (नयन सजल हो जाते हैं) मेरा ह्रदय रोता था। तुम्हारे आगमन का कुछ संवाद न मिला। झूठी सांत्वना कब तक देता। जम्बू – दादाजी ! दादी माँ कह रही हैं कि फूफाजी का बातों से ही पेट भरेंगे क्या ? कृपया उनके स्नान की व्यवस्था करें। वे भोजन कराने की राह देख रही हैं। धनदत्त – हाँ बेटा ! चलो उठो। इस अनायास मिले अनुपम आनन्द के कारण कर्त्तव्य का ध्यान खो बैठा। जम्बू ! जाओ बेटा ! दादी माँ से कहो फूफाजी को लेकर मैं शीघ्र ही रसोई घर में आता हूँ। (सबका जाना) (परदा गिरता है) आठवाँ दृश्य संध्याकाल के समय वैजयन्ती नगर के नरेश धृतिषेण मंत्रणा-गृह में बैठे हैं। निकट ही उनके महामात्य बृद्ध यशोधर हैं। दोनों के वार्तालाप का विषय गूढ है। धृतिषेण-महामात्य! आपको कैसे मालूम कि श्रेष्ठि महीपाल ने अपनी पुत्रवधू को वन में निष्कासित कर दिया ? यशोधर – महाराज ! उनका पुत्र सुखानन्द द्रव्य अर्जित करने परदेश भ्रमणार्थ गया था। तदुपरान्त सुखानन्द की माँ किसी अज्ञात कारणवश मनोरमा को चरित्रहीन समझ बैठी और उन्होंने तुरन्त उसे गृह-निकाला दे दिया। धृतिषेण - मनोरमा ने अपनी निर्दोषिता स्पष्ट नहीं की ? यशोधर – सुनने वाला कौन था महाराज ! नारी वह भी वधू। सास ने उसे व्यभिचारिणी जान वनवास देने में ही कुल की रक्षा समझी। धृतिषण - महीपालजी ने इसका प्रतिवाद नहीं किया ?
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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