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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/30 गृहलक्ष्मी की खोज में निकल पड़े। वियोग की ज्वाला में जलते जंगलों और नगरों में भटकते रहे। दैवयोग से काशी में पहुंचने पर मनोरमा के मामा धनदत्त के यहाँ सहधर्मिणी का पता लगा। चिरवियोग की घड़ियां समाप्त हुई। सातवाँ दृश्य काशी में धनदत्त का मकान । सुखानन्द दरवाजे पर आते हैं। बहुत दिनों से कंथचित् आहार न होने के कारण उनकी काया कृश हो गई है। और अस्तव्यस्त वेशभूषा दरिद्रता की ही परिचायक है। फिर भी भव्य मुखाकृति भद्रता और श्रेष्ठता को सूचित कर रही है। तन पर एक धोती और फटासा उतरीय है। केश बढ़े हुये रुक्ष हो यत्र-तत्र बिखरे हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कई दिनों से संवारे न गये हों। धनदत्त के द्वार पर दो छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे हैं। एक लगभग आठ साल का और दूसरा ग्यारह साल का है। सुखानन्द - क्यों बच्चो ! धनदत्त श्रेष्ठी का मकान यही है ? मंगल - हाँ हाँ यही है। क्यों आपको क्या काम है ? सुखानन्द - मुझे उनसे मिलना है। वे घर पर हैं ? मंगल - नहीं हैं, ठहरिये मैं बुलाये देता हूँ। सुखानन्द - सुनो तो सही, धनदत्तजी क्या तुम्हारे पिता हैं। (दोनों बच्चे हँसने लगते हैं) मंगल - पिता नहीं, हमारे बाबा हैं। सुखानन्द - अच्छा ! तो बच्चो तुम्हारा नाम क्या है ? जम्बू - मेरा नाम जम्बू और (बड़े भाई की ओर संकेत करते हुये) बड़े भइया का नाम.....। मंगल - (बात काटकर) मेरा नाम तू क्यों बताता है (धीरे से चपत मारना) मैं खुद बता दूंगा। हाँ तो महाशयजी मेरा नाम मंगल है। जम्बू - (रोने लगता है) ठहरो ! तुमने आज मुझे फिर मारा मैं तुम्हारी शिकायत बुआ से करूँगा। तुम भूल गये तुमने मनोरमा बुआ के सामने कान
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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