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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/23 आनन्द बस करो रानी ! इतना ही बहुत है। यह बहिन की केंचुली शीघ्र उतार फेंको, और मन चाहे सुख भोगो। मैं अपनी सब पत्नियों में तुम्हें पटरानी बनाऊँगा। तुम्हारी आज्ञा यह दास सदा सिर माथे पर रखेगा । मनोरमा - नीच, कामुक ! क्या इसीलिये तू मुझे जंगल से लाया था ? मुझे वहीं छोड़ दे । - आनन्द - (अट्टहास करते हुये) हः हः हः अः वहीं छोड़ दूँ ? अरे तुम नहीं जानती स्त्रियाँ पुरुषों की वासना तृप्ति की साधिका ही तो हैं। इसी उपयोगार्थ मैं तुम पर होने वाला व्यय सहन कर रहा हूँ । मनोरमा - अरे गोमुखी व्याघ्र ! तूने यह भ्रामक वेष धारण कर भाई के पवित्र स्नेह को कलंकित किया है। आनन्द - उपदेश सुनने का अभिलाषी नहीं, मुझे तो तृप्त कर दो प्यारी । मनोरमा - घृणित वासना की तृप्ति और मुझसे ! ( गरजकर) आग की लपटों से मत खेल मूर्ख ! झुलस जाएगा। सिंहनी के दाँत गिनने का पागलपन न कर । जानता है, प्रतिशोध लेने वाली नागिन से कोई जीवित नहीं बचा। 1 आनन्द - ( व्यंग से) खूब अभिनय की कला में भी निष्णात हो... देखो, प्रेम से मेरी बात मान लो ( आग्रह पूर्वक ) यहाँ तुम्हें जानता भी कौन है। मर्यादा और शर्म तो परिचितों की हुआ करती है। सतीत्व के ढोंग में क्या रखा है ? मनोरमा – कोई जाने या न जाने । अन्तरयामी प्रभु तो सब जानते हैं, मेरा और तुम्हारा आत्मा तो जान रहा है। अरे पापी, पाप की आंधी में फंसकर घोर नरकवास ही भोगना होगा । आनन्द - छोड़ो प्रिये ! यह धर्मकर्म । इसके पचड़े में नहीं पड़ा करते । खाओ, पिओ और मौज करो । मनोरमा चुप रह नीच ! बहिन कहकर धर्म साधन का प्रलोभन दिया । मेरी बुद्धि भी मारी गई जो तुम जैसे रंगे सियार पर विश्वास कर बैठी । —
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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