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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 16/21 आनन्द - तब तो बहिन तुम्हें मेरे साथ चलना होगा । मैं किसी प्रकार का कष्ट अनुभव न होने दूँगा । मनोरमा - नहीं, यह असम्भव है। आनन्द असम्भव कुछ भी नहीं बहिन | क्या भाई पर बहिन का विश्वास नहीं ? उठो बहिन, चलो। हमारे तुम्हारे मध्य भगवान साक्षी हैं। महलों में रहकर तुम धर्मसाधन करना । कोई विघ्न बाधा न आयेगी । मनोरमा - व्यर्थ ही कष्ट न करें आप तो अच्छा हो । GYG आनन्द - कष्ट की क्या बात, यह तो मानव का कर्त्तव्य है । (अत्यन्त स्नेहपूर्वक) चलो चलें । मनोरमा - नहीं मानते तो चलती हूँ। आनन्द - (स्वगत) अब तो मजे ही मजे हैं। आखिर शिकार फँस ही गया। (दोनों चले जाते हैं) पाँचवाँ दृश्य महल में मनोरमा बैठी है। कमरा राजसी ठाठ से सजा हुआ है। गलीचे कालीन यत्र तत्र बिछे हुये हैं । बहुमूल्य झाड़ फानूस लटक रहे हैं। कुछ कुर्सियां बैठने के लिये रखी हैं । मनोरमा विचारमगन है। मनोरमा - (स्वगत) क्या करूँ प्रभु ! हृदय में शान्ति नहीं, तृप्ति नहीं । आनन्द भैया ने मेरी प्रसन्नता हेतु सभी सुख-साधन उपलब्ध कर दिये हैं। पर मुझे चैन कहाँ ? पति सुखानन्द की सुधि क्षण-क्षण हृदय को झकझोरती है। उनकी मुख छबि आँखों में अहर्निश झूला करती है। न जाने कब दर्शन होंगे। उन्हीं की आशा में प्राणों को संजोये हूँ।..... नारी जीवन की विडंबना - न मर पाती हूँ न जी पाती हूँ । (राजकुमार आनन्द का प्रवेश) आनन्द को देखकर मनोरमा खड़ी हो जाती है और उसे कुर्सी पर बैठने का आग्रह करती है। दोनों बैठ जाते हैं। वार्तालाप प्रारम्भ होता है।
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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