________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/11
सुखानन्द - कौनसी बड़ी बात है। हमने परस्पर एक दूसरे की रूपसुधा का पान कर ऐसी कई रात्रियाँ नहीं बिता दी हैं ? (गहरी सांस लेते हुये ) चलो शयन करें ।
मनोरमा - नाथ ! आपने गहरी सांस क्यों ली ? क्या हो गया। ऐसी कौनसी अमाप आशांका से आपका जी सिहर उठा ?
सुखानन्द - कुछ नहीं । तुम्हें नींद आ रही है न, चलो सो जायें। (उदासी को छिपाने का विफल प्रयत्न करते हैं)
मनोरमा – प्रियतम ! बात को उड़ाने का असफल यत्न न कीजिये । मैं तब तक न सो सकूँगी जब तक आप अपनी बात न बतायेंगे। छुपाने से काम न चलेगा। कुछ दिनों से देख रही हूँ। आप चाहे जब उदास हो जाया करते हैं। पर कुछ बतलाते नहीं । आज तो मैं सुनकर ही रहूँगी ।
सुखानन्द - ऐसी कोई बात नहीं प्रिये ! तुम अधीर क्यों हो गई ?
मनोरमा - पहेलियाँ मत बुझाईये देव ! मेरे सिर की सौगंध है आपको। अवश्य आपके मन में कोई दुश्चिंता है, जिसे आप बारबार छुपाने का निरर्थक प्रयास कर रहे हैं। निकाल दीजिये नाथ, मन की व्यथा अन्तर में रख हृदय को दग्ध न करें। दासी का अनुरोध स्वीकृत हो ।
सुखानन्द - मनोरमे ! तुम दासी नहीं, मेरे हृदय सिंहासन की आराध्य देवी हो.... (कुछ विचार कर) बता ही दूँ। जानता हूं तुम बिना सुने न मानोगी तो सुनो, मनो! पिता की अर्जित सम्पत्ति का मैं युवावस्था में सुखप्रवर्तक उपयोग करता रहूं यह अब अच्छा नहीं लगता । मुझे अत्यन्त आत्मग्लानि हो रही है। मेरा पुरुषार्थ रो रहा है। भावनायें मचल उठी हैं विदेश जाने के लिए। कुछ उद्योग कर जीवन सफल करने की चिरसंचित साधना पूर्ण करना चाहता हूँ ।....... इस विषय में सत्परामर्श प्राप्त करने का अभिलाषी हूँ कहो, क्या कहती हो ?
मनोरमा - आर्यपुत्र, आपका विचार सर्वोत्तम है, श्रेष्ठ कुल सपूतों के