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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/10 जैनधर्मी को ही देना चाहिये, विधर्मी को कन्या देना तो महापाप है। राजा जैनधर्मी नहीं, विधर्मी है; इसलिये कुछ भी हो मैं विधर्मी राजा को अपनी कन्या नहीं दूंगा । सांसारिक सुख के लिए धर्म को नहीं बेचा जा सकता। धर्म ही संसार से उद्धार करने वाला है। धर्म ही जीव का साथी है, इसके बिना जीना व्यर्थ है। जो व्यक्ति सांसारिक प्रयोजन में आकर अपनी कन्या विधर्मी को देता है वह निंद्यनीय है। आज तक बंधुश्री ने वीतरागी देव की सेवा, पूजा, उपासना, भक्ति आदि ही की है, अब वह विधर्मी के यहाँ जाने से किस प्रकार अपने धर्म की रक्षा कर सकेगी ? क्या क्षणिक भोगों के लिये धर्म नष्ट किया जा सकता है ? नहीं, नहीं; धर्म कदापि नष्ट नहीं किया जा सकता। मैं अपनी कन्या का विवाह जैन धर्मावलम्बी के साथ ही करूँगा, भले ही वह गरीब ही क्यों नहीं हो! धनादि एवं राजादि का पद क्षणिक है, विनाशीक है, पराधीन है। आज है, कल नहीं होगा।आज नहीं है, कल आजाएगा, उसकी क्या कीमत ? परन्तु दिगम्बर जैन धर्मशाश्वत वस्तु है। यही आत्मा कासाथी है, इसको छोड़कर कोई भी पदार्थ अपना नहीं है"- इसप्रकार विचार-सागर में मग्न होकर सेठ गुणपाल व्यथित हो गया। उसने राजा के दूत को मीठे वचनों से समझाकर विदा किया।
तत्पश्चात् अपनी पत्नी धनश्री को बुलाकर उसका अभिप्राय जानने के लिये सेठ कहने लगा कि “महाप्रतापी विश्वंधर महाराज बंधुश्री के साथ विवाह करना चाहते हैं - यह अपने लिये कितने गौरव की बात है ? बंधुश्री पटरानी बनेगी, राज दरबार में अपना मान अधिक होगा; अतः हमें शीघ्र ही बंधुश्री के विवाह की तैयारी करना चाहिये।"
तब धनश्री कहती है कि - "हे स्वामिन् ! आज आपको यह क्या हो गया है ? आप अपने मुख से कैसी विचित्र बातें कर रहे हैं ? राजा विश्वंधर विधर्मी है - मिथ्यादृष्टि है। उसके साथ मेरी पुत्री का विवाह कभी नहीं हो सकता। वीतरागी प्रभु की सेवा बिना रूप, लावण्य, विद्या, धन, वैभव आदि सब व्यर्थ हैं। मदोन्मत्त हाथी के पैर के नीचे कुचलकर मार देना भले ठीक हो; परन्तु विधर्मी के साथ कन्या का विवाह करना ठीक नहीं है। जो व्यक्ति धर्म