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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६७ दुनियाँ का लक्ष्य ही नहीं रहा। अरे, त्रिशला माता आकर सामने खड़ी हैं, उनका भी उन्हें लक्ष्य नहीं है। माता तो देखती ही रह गईं कि- वाह ! मेरा पुत्र वैराग्यमुद्रा में कैसी अद्भुत सुशोभित हो रहा है। अहा, इसकी शान्त वैराग्यमुद्रा देखकर मुझे अनुपम आनन्द होता है...मानों देखती ही रहूँ ! इसप्रकार त्रिशला माता के हृदय में अत्यन्त स्नेह उमड़ रहा है और वे मन ही मन पुत्र को आशीर्वाद दे रही हैं। सचमुच आशीर्वाद दे रही हैं या आशीर्वाद के बहाने उनकी भक्ति कर रही हैं - यह तो वे ही जानें। ___ कुछ समय पश्चात् महावीर ने नेत्र खोले तो देखा कि सामने माताजी खड़ी हैं। माता को देखकर उनकी वैराग्यमुद्रा किंचित् मुस्करा उठी। माता ने स्नेह से पूछा - बेटा वर्धमान ! आज तुम इतने विचारमग्न क्यों हो?....तब वीर कुँवर के मुख से गम्भीर वाणी निकली - हे माता ! आज प्रात:काल जातिस्मरण में मैंने अपने पूर्वभव देखे; अब मेरा चित्त सब ओर से विरक्त हुआ है, इसलिये आज ही इस असार-संसार को छोड़कर मैं मुनिदीक्षा अंगीकार करूँगा और शुद्धोपयोग द्वारा अपने निज परमात्मा को साधूंगा। ___ इधर तो राजकुमार के मुख से दीक्षा लेने के उद्गार निकल रहे थे कि उधर इन्द्रसभा में खलबली हुई; इन्द्र का इन्द्रासन डोल उठा; प्रभु के दीक्षाकल्याणक का अवसर जानकर देवगण वैशाली में आ पहुँचे। लौकान्तिक देवों ने आकर प्रभु की स्तुति की; वैराग्यभावना में निमग्न प्रभु ने दृष्टि उठाकर लौकान्तिक देवों की ओर देखा। उस समतारस झरते दृष्टिपात से देवगण अत्यन्त प्रमुदित हुए....एक ओर वैरागी तीर्थंकर तो दूसरी ओर वैरागी लौकान्तिक देव ! अहा, वैराग्यवान उत्तम साधकों का वह मिलन चैतन्य की परम गम्भीर शान्तियुक्त था। उस मिलन से परस्पर दोनों के वैराग्य की पुष्टि हुई।
प्रजाजन यह सब बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। देवेन्द्रों ने प्रभु का दीक्षाकल्याणक मनाने हेतु प्रथम उनका दैवी श्वेत वस्त्रों से शृंगार किया। प्रभु का वह वस्त्रधारण करना अब अन्तिम था; अब वे पुन: कभी कोई वस्त्र धारण नहीं करेंगे। एक ओर देवों का शृंगाररस तो दूसरी ओर वैरागी प्रभु का शान्तरस; उत्कृष्ट शृंगार एवं उत्कृष्ट वैराग्य में मानों प्रतियोगिता हो रही थी। अन्त में शृंगाररस की पराजय और वैराग्यरस की विजय हुई। प्रभु तो रागमय वस्त्रादि शृंगार का परित्याग