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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६६ कारणों को नहीं ढूँढते, प्रशम तो उनके अन्तर से स्वयमेव स्फुरित होता है।
आज प्रात:काल महावीर ने सिद्धों का स्मरण करके आत्मा का ध्यान किया। आज उनके वैराग्य कीधारा कोई अप्रतिम थी। विशुद्धता में वृद्धि हो रही है, उपयोग क्षणभर में अन्तर्मुख निर्विकल्प हो जाता है और पुन: बाहर आ जाता है; परन्तु बाह्य में उसे चैन नहीं पड़ता, वह सर्वत्र से छूटकर, विभावरूप परदेश से लौट कर, स्वभावरूप स्वदेश में स्थिर रहना चाहता है।
बारम्बार ऐसी दशा में झूलते हुए प्रभु के मतिज्ञान में सहसा कोई विशिष्ट निर्मलता झलक उठी, उनको जातिस्मरण हुआ; स्वर्गलोक के दिव्य दृश्य देखे, चक्रवर्ती का वैभव दिखा, सिंह दिखा, सम्यक्त्व का बोध देते हुए मुनिवर दिखे; उससे पूर्व की नरकगति भी दिखी। इसप्रकार अनेक पूर्वभव देखकर तुरन्त वीरप्रभु का चित्त संसार से विरक्त होकर जिनदीक्षा लेने हेतु उद्यत हुआ। अरे, कहाँ वे नरक के घोर दुःख और कहाँ स्वानुभूति का सुख ! कहाँ वे सिंह पर्याय में हिंसा और क्रूरता के रौद्र परिणाम और कहाँ सम्यक्त्व की शान्ति ! - दोनों में अटूट रहनेवाला एक महान ज्ञायकभाव मैं हूँ- ऐसे अपने एकत्व का चिन्तवन करते हुए वे बारम्बार निर्विकल्प हो जाते थे। बारम्बार इतनी अधिक निर्मलता एवं निर्विकल्पता होती थी कि बस, अब शुद्धोपयोगी मुनिदशा के बिना यह जीव रह नहीं सकेगा। इसप्रकार महावीर ने अपने मन में दीक्षा का निर्णय किया। ___ महावीर का निर्णय अर्थात् वज्र-निर्णय...महावीर का निर्णय अर्थात् अचल निर्णय...महावीरकुमार ने दीक्षा ग्रहण का दृढ़ निर्णय किया और परम विरक्त चित्त से एकबार निर्विकल्प अनुभूति में लीन हो गये।
राजकुमार सिंहासन पर बैठे हैं....चैतन्य की गम्भीरता में ऐसे लीन हैं कि