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मैं सहज शद्ध
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६३ वाह! वृक्ष पर खिला हुआ फूल उस पर कैसा सुशोभित होता है, जिसप्रकार इस वृक्ष पर यह फूल शोभा दे रहा है, उसीप्रकार आत्मारूपी चैतन्यवृक्ष भी उस पर खिले हुए अनन्त पंखुरियों वाले सम्यक्त्वादि पुष्पों से सुशोभित है, उसका सौन्दर्य अनुपम है।
वीरकुमार चैतन्य-उद्यान की प्रशंसा कर रहे थे, इतने में एक कुमार ने वह सुन्दर पुष्प लाकर आदर सहित वीरकुमार के चरणों में रख दिया। सब लोग आनन्द पूर्वक देख रहे थे। तब वीरकुमार ने
गम्भीरता से कहा-बन्धु! यह पुष्प वृक्ष की डाल
पर जैसा शोभा दे रहा था वैसा अब नहीं
देता; उसकी शोभा नष्ट हो गई है; माता से
बिछुड़े हुए बालक की भाँति वह मरझा ज्ञानानंद एक स्वभाव हूँ
रहा है। पुष्प को # निर्विकल्प हूँ...उदासीन हूँ.. उसकी डाली। निज निरंजन शुद्धात्माका सम्यक्
। से पृथक् करना वह
पुष्प दोनों की । निश्चय रत्नत्रयरूप निर्विकल्प । सुन्दरता को
समाधि में अनुभवसे ज्ञात वीतराग नष्ट कर देना है। देखो न.
सहजानंद रूप हूँ ई. पुष्प रहित वृक्ष
सर्व विभाव परिणामरहित शून्य हूँ... क सा मात्र सुख की अनुभूतिरूप लक्षणवाला स्वसंवेदन "
शोक मग्न लगता ज्ञान से स्वसंवेद्य-गम्य - प्राप्य भरा हुआ - परिपूर्ण है। अपनी प्रसन्नता
परमात्मा हूँ... wwwwe
के लिये हम दूसरे जीवों का सौन्दर्य नष्ट कर दें वह क्या उचित लगता है ? दूसरों को कष्ट दिये बिना हम आनन्द प्रमोद करें, वही उचित है।
इसप्रकार सहजरूप से अहिंसादि की प्ररूप्रणा करके वीरकुमार वीतरागता फैला रहे थे। धन्य उनका जीवन ! गृहवास में भी धर्मात्मा राजपुत्र का जीवन अलौकिक था। वे गृहवासी भगवान बारम्बार सामायिक का प्रयोग भी करते थे। सामायिक की स्थिति में वे इसप्रकार मन की एकाग्रतापूर्वक धर्म ध्यानरूप
आत्मचिन्तन करते थे, मानों एकान्त में कोई मुनिराज विराज रहे हों, उस समय में वे राग-द्वेष से परे समभावरूप वीतराग परिणति का विशेष आनन्द अनुभवते थे। उनकी सामायिक कोई अमुक शब्दपाठ बोलनेरूप नहीं थी, किसी के नाम का
श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान