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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-8/80 कुँवर की महिमावाचक जो अद्भुत चर्चा की, उसे जानने की आत्मार्थी पाठकों की उत्कण्ठा देखकर यहाँ वह सुन्दर चर्चा दे रहे हैं -
चन्दना ने हर्षित होकर कहा- दीदी, वीर वर्द्धमान कुँवर को प्राप्त करके हम सचमुच धन्य हो गये हैं; उनकी ज्ञानचेतना की गम्भीरता और वीतरागी अनुभूति अति गहन है।
त्रिशला देवी बोली – हाँ, बहिन चन्दना ! तेरी बात सच है; वीर कुँवर तो 'आनन्द की चलती-फिरती अनुभूति' हैं; उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे अपने घर में चलते-फिरते छोटे सिद्ध हों। ऐसे गम्भीर वीर कुँवर कई बार मेरे पास अपना हृदय खोलते हैं और अपनी गम्भीर अनुभूति के रहस्य मुझे बतलाते हैं...उस समय यह संसार विस्मृत हो जाता है और आत्मा में ऐसी झनझनाहट उठती है जैसे मोक्षपुरी में केलि कर रही होऊँ।
चन्दना - अरे दीदी ! मुझे भी महावीर ने आज स्वानुभूति के गहन रहस्य समझाकर आनन्द का अपूर्व अनुभव कराया है। मेरे लिये तो उन्होंने आज से ही धर्मतीर्थ का प्रवर्तन प्रारम्भ कर दिया। उनके अपूर्व उपकार की क्या बात करूँ !
त्रिशला-बहिन, आत्मशान्ति से भरपूर उनकी वाणी चमत्कारिक है, उसे सुनकर आश्चर्य होता है और चैतन्यभाव जाग उठता है।
चन्दना - हाँ दीदी, आज ही मुझे उनकी प्रसन्न वाणी का लाभ प्राप्त हुआ और मेरे आत्मा में अपूर्व चैतन्यभाव जाग उठे....रागरहित ज्ञानरस कितना मीठा है उसका मैंने आज आस्वादन किया।
त्रिशला – वाह चन्दना ! तू धन्य हो गई ! मेरी लाड़ली छोटी बहिन आत्मानुभूति को प्राप्त हो – ऐसी उत्कंठा मुझे बहुत दिनों से थी, जो आज पूरी हुई। तेरी बातें सुनकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। ___ चन्दना-अहा, वर्द्धमान तो वर्द्धमान ही हैं; उनकी वैराग्यदशा पाताल जैसी गहरी है।
त्रिशला-ठीक है बहिन ! ज्ञानकला जिसके घट जागी....ते जगमाहिं सहज वैरागी' ऐसा जो सिद्धान्त वचन है वह हमें तो अपने घर में ही चलताफिरता प्रत्यक्ष दिखायी देता है। और चन्दना बहिन ! तेरा जीवन भी वीर कुँवर