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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/८६ तन्मय होकर उसके अतीन्द्रिय महान आनन्द का स्वाद लेगा। मौसी, तुम प्रयत्न करोगी तो आज ही तुम्हें उस अपूर्व स्वाद का अनुभव होगा।
अहा ! प्रभु वर्द्धमान ! तुम्हारी ऐसी उत्तम बात और उत्तम प्रेरणा से मेरा आत्मा झंकृत हो उठता है; मैं इसी समय वह चैतन्यस्वाद लेने के लिये अन्तरोन्मुख होती हूँ। तुम्हारे पास से चैतन्यस्वरूप की जो अपार गम्भीर महिमा सुनी है उसे अभी हाल अनुभवगोचर करती हूँ। ___ 'बहुत ही अच्छा!' ऐसा कहकर महावीर ने उसका अनुमोदन किया और चन्दनबाला तुरन्त ही गम्भीर वैराग्य से चैतन्य के उल्लसित भावों से आत्मस्वरूप का चिन्तवन करने लगी। अहा ! क्षण-दो क्षण हुए कि चन्दना को चैतन्यदेव जागृत होने लगे....चन्दन जैसी आनन्दमय सुगन्ध से उसका आत्मा महक उठा। भावी तीर्थंकर सामने ही बैठे हैं; परन्तु अभी चन्दना को उनका भी लक्ष्य नहीं है, वह तो निर्विकल्प आनन्द की अनुभूति में निमग्न होकर आत्मा में सम्यक्त्व तीर्थ का प्रारम्भ कर रही है....मानों कोई लघु तीर्थंकर गृह-आँगन में तीर्थ का प्रवर्तन कर रहे हों। धन्य हुई चन्दनबाला ! उसने वीरतापूर्वक सदा के लिये स्त्री पर्याय का छेदन कर दिया। वाह रे वाह ! तीर्थंकर की माता की लाड़ली बहिन ! तूने अपना जीवन सफल कर लिया। स्वानुभूति की निर्विकल्प दशा से उपयोग बाहर आने पर भी चन्दना की दशा कोई परम अद्भुत थी। उस गम्भीरता को देखकर वीर कुँवर समझ गये कि मौसी को अपूर्व आनन्द की अनुभूति हो चुकी है। अहा ! उन सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा मौसी को देखकर महावीर भी आनन्दित हुए। चन्दनबाला ने अपनी बड़ी दीदी त्रिशलादेवी के साथ स्वानुभूति की महिमा और साथ-साथ वीर कुँवर की महिमा की गम्भीर चर्चा की। दोनों सम्यग्दृष्टि बहिनों की चर्चा वास्तव में अद्भुत थी, उसमें से मानों अतीन्द्रिय आनन्द के झरने झरते थे....परभावों से अलिप्त ज्ञानचेतना की अगाध महिमा उसमें भरी थी....' धन्य है ऐसे ज्ञानचेतनावन्त धर्मी जीव।
दो बहिनों की सुन्दर धर्म-चर्चा राजकुमार वर्द्धमान और वैराग्यवती चन्दनबाला की अद्भुत चैतन्यरसपूर्ण चर्चा और उसके फलस्वरूप चन्दनबाला को सम्यक्त्व की प्राप्ति का आनन्ददायी वर्णन हमने पढ़ा। पश्चात् चन्दना ने त्रिशला दीदी के साथ स्वानुभव की तथा वीर