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पुत्र
माता
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६/७१
माता मुझको जगे भावना कब मैं बनूँ वैरागी... रागमयी बन्धन सब तोडूं बनूँ परिग्रह त्यागी... माता ! दर्शन तेरा रे... जगत को आनन्ददायक है....
बेटा ! तू तो पाँच वर्ष का पर गम्भीर बहुत है... गृहवासी तू तदपि उदासी दशा मोह विरहित है... बेटा ! जन्म तुम्हारा रे... जगत को मंगलकारक है.... माता ! तू तो अन्तिम माता फिर नहिं होगी माता... रत्नत्रय से केवल मिलता जन्म मरण भग जाता.... माता ! दर्शन तेरा रे... जगत को आनन्ददायक है ...
बेटा ! तू तो जग में उत्तम जग का त्रास मिटाता... दिव्यध्वनि में दे संदेशा मुक्ति मार्ग प्रगटाता... बेटा ! धर्म तुम्हारा रे... जगत को मंगलकारक है... भरतक्षेत्र में भव्यों के हित मुक्ति मार्ग प्रगटा है... और भव्य स्वयं ही चलकर उस पर आय डटा है... माता ! दर्शन तेरा रे... जगत को आनन्ददायक है ... वर्द्धमान ! तू सच्चा बेटा धर्म वृद्धि का कर्ता... महावीर भी सच्चा तू है मोहमल्ल का जेत्ता... बेटा ! धर्म तुम्हारा रे... जगत को मंगलकारक है... माता ! मैं निजधर्म बढ़ाऊँ परमातम पद पाऊँ...
व सभी जिनधर्म को पायें यही भावना भाऊँ... माता ! दर्शन तेरा रे... नगर को आनन्ददायक है...
बेटा ! तेरे ही प्रताप से जग में धर्म बढ़ेगा... जो तेरा अनुचर बन जाये मोक्षपुरी पहुँचेगा... बेटा ! धर्म तुम्हारा रे... जगत को आनन्ददायक है.... माता ! चेतन की अनुभूति अतिशय मुझको न्यारी... अनुभूति तें आनन्द उछले उसकी जाति न्यारी है... माता ! दर्शन तेरा रे... जगत को आनन्ददायक है...