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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६६ वे अनन्त हैं, उनके अतिरिक्त कितने ही सर्वज्ञ अरिहन्त' पद पर विराजमान हैं, वे इस मध्यलोक में मनुष्यरूप में विचरते हैं और ऐसे लाखों ‘अरिहन्त' हैं।
देवकुमार - ऐसे किन्हीं सर्वज्ञ का नाम बतलाएँगे ?
राजकुमार – हाँ, इस समय महाविदेहक्षेत्र में श्री सीमन्धर भगवान आदि सर्वज्ञरूप से विचर रहे हैं; वे अरिहन्त-सर्वज्ञ' हैं; और पार्श्वनाथ तक हुए भगवन्त वर्तमान में सिद्धलोक में विराजते हैं वे 'सिद्ध-सर्वज्ञ हैं। अपने महावीरकुमार भी ४२वें वर्ष में सर्वज्ञ होंगे।
देवकुमार – सर्वज्ञ क्या करते हैं ?
राजकुमार - सर्वज्ञ अर्थात् सबके ज्ञाता; सर्वज्ञ भगवान अपने ज्ञानसामर्थ्य से सब जानते हैं और उस ज्ञान के साथ वे अपने पूर्ण आत्मिक सुख का अनुभव करते हैं। वे विश्व के ज्ञाता हैं, किन्तु कर्ता नहीं हैं।
देवकुमार – ऐसे सर्वज्ञ को ही देव किसलिये मानना ?
राजकुमार – क्योंकि अपने को अतीन्द्रिय पूर्ण सुख और पूर्णज्ञान इष्ट है, प्रिय है; इसलिये जिन्हें ऐसा सुख एवं परिपूर्ण ज्ञान प्रगट हुआ है, उन्हीं को हा अपने इष्टदेव के रूप में मानेंगे।
देवकुमार – सर्वज्ञ को मानने से हमें क्या लाभ ?
राजकुमार - सर्वज्ञ को जानने से हमें आत्मा के पूर्ण सामर्थ्य की प्रतीति होती है और अपने आत्मा के पूर्ण सामर्थ्य की प्रतीति होने के कारण पर में से ज्ञान या सुख लेने की पराधीन मान्यता दूर हो जाती है; बाह्यविषयों में सुख की मिथ्या-कल्पना छूटकर आत्मस्वभाव में जो अतीन्द्रिय ज्ञान एवं सुख है उसकी श्रद्धा प्रगट होती है। तथा सर्वज्ञता के साथ राग-द्वेष का कोई अंश भी नहीं रह सकता; इसलिये सर्वज्ञ को जानने से राग-द्वेष से भिन्न अपने आत्मा के शुद्धस्वरूप की पहिचान होती है। इसप्रकार सर्वज्ञ को जानने से अपने आत्मा में स्वाश्रयपूर्वक सम्यग्ज्ञान एवं अतीन्द्रिय सुख होता है अर्थात् धर्म का प्रारम्भ होता है - यह अपूर्व लाभ है।
देवकुमार - क्या सर्वज्ञ को माने बिना धर्म नहीं हो सकता ?