________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६५
देवकुमारों तथा राजकुमारों की तत्त्वचर्चा एकबार चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन वीरकुँवर का जन्मदिन मनाने हेतु देवकुमार और राजकुमार कुण्डग्राम के राजोद्यान में एकत्रित हुए थे। वीरकुँवर के आने में कुछ देर होने से वे तत्त्वचर्चा करने लगे। उनकी चर्चा कितनी सुन्दर थी वह हम देखें
देवकुमार – भाइयो ! आज वीरकुँवर का जन्मदिन है। वे राजभवन से यहाँ पधारें तब तक हम थोड़ी धर्मचर्चा करें।
राजकुमार बोले-वाह ! यह तो बड़ी अच्छी बात है ! धर्म के महान दिवस पर तो धर्म चर्चा ही शोभा देती है।
देवकुमार - ठीक है; आज हम ‘सर्वज्ञ' के स्वरूप की चर्चा करेंगे। बोलो राजकुमार ! हम किस धर्म को मानते हैं ? और हमारे इष्टदेव कौन हैं?
राजकुमार - हम जैनधर्म को मानते हैं....उसमें आत्मा के शुद्धभाव द्वारा मोह को जीतते हैं और भगवान सर्वज्ञ' अपने इष्टदेव हैं।
देवकुमार – ‘सर्वज्ञ' कौन हैं ?
राजकुमार - ‘सर्वज्ञ नाम कोई व्यक्तिवाचक नहीं है, अपितु मोह का नाश करके ज्ञानस्वभावी आत्मा की सम्पूर्ण ज्ञान-शक्ति जिनके विकसित हो गई है, वे सर्वज्ञ हैं; - इसप्रकार सर्वज्ञ' शब्द गुण वाचक है।'
देवकुमार – सर्वज्ञ कब हुए ?
राजकुमार - सर्वज्ञ अनादि से होते आ रहे हैं; वर्तमान में होते हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे।
देवकुमार – सर्वज्ञ कितने हैं ? उनके कितने प्रकार हैं ? ।
राजकुमार - सर्वज्ञता प्राप्त जीव अनन्त हैं; उन सबकी सर्वज्ञता एकसमान है, उसमें कोई अन्तर नहीं है; किन्तु अन्य प्रकार से उनके 'सिद्ध' और 'अरिहन्त' ऐसे दो भेद हैं।
देवकुमार - वे सर्वज्ञ भगवन्त कहाँ रहते हैं ? राजकुमार - सर्वज्ञ में जो सिद्ध हैं, वे लोकाग्र में सिद्धलोक में विराजते हैं;