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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६३ तीर्थंकर देव का चरण स्पर्श करते तब समझ में आता था कि देव कौन है, वे देव कहते थे कि हे प्रभो ! हम देव नहीं हैं; वास्तव में तो देव आप ही हैं। इसप्रकार गुणों की विशेषता के कारण वीर कुँवर सबसे अलग पहिचाने जाते थे।
वीर कुँवर का जन्म होने से वैशाली सर्वप्रकार से वृद्धिंगत होने लगी; उसका
वैभव भी बढ़ने लगा और आत्म गुण भी। इसलिये माता-पिता एवं प्रजाजनों ने उन वीर कुँवर को वर्द्धमान नाम से सम्बोधन किया।
"पणमामि वड्ढ़माणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं” (प्रवचनसार)
अहा ! 'वर्द्धमान' ऐसे सुन्दर नाम से जो वाच्य हैं, जिन प्रभु के गुणों की पहिचान से आत्मा के गुण वृद्धिंगत होते हैं - ऐसे धर्मवृद्धिकर श्री वर्धमान जिन को मैं वन्दन करता हूँ। चैतन्यगुणों में वृद्धिंगत उन महात्मा को देवलोक से आनेवाले दिव्यवैभव भी आश्चर्यचकित नहीं करते थे। अहा ! क्या चैतन्यगुणों से अधिक सुन्दर कोई ऐसी वस्तु इस जगत में है, जो धर्मी के चित्त को आश्चर्य में डाल सके। ___ वीर-वर्द्धमानकुमार दो वर्ष के बालक होने पर भी तीन ज्ञान से गम्भीर हैं
और आराधना सहित श्रेष्ठ जीवन जीते हैं। उन्हें देख-देखकर भव्यजीवों का हृदय शान्त होता है।
उनकी बालक्रीड़ाएँ निर्दोष हैं। अवधिज्ञानी-आत्मज्ञानी वे महात्मा ऐसा विशिष्ट क्षयोपशम लेकर आये हैं कि किसी शिक्षक के पास कोई विद्या पढ़ना शेष नहीं रहा; जगत को चैतन्यविद्या पढ़ानेवाले वे स्वयंबुद्ध भगवान स्वयं सर्वविद्याओं में पारंगत हैं। अहा ! ऐसे बालप्रभु जिनके गृह में सदा क्रीड़ा करते हों और जिनके हृदय में विराजते हों, उनके महान सौभाग्य का क्या कहना !