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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६२ ज्ञानी ही जानते हैं। जब सारी दुनिया जन्मोत्सव के हर्षातिरेक में पागल हो रही थी तब हमारे प्रिय बालप्रभु तो अपनी ज्ञानचेतना की शान्ति में निमग्न होकर बैठे थे। वाह रे वाह ! वीतरागमार्ग में हमारे भगवान तो इसीप्रकार शोभा देते हैं।
पार्श्वनाथ प्रभु के मोक्षगमन पश्चात् १७८ वर्ष में महावीर प्रभु का जन्म हुआ। उनके शरीर में १००८ उत्तम लक्षण थे; उनके बाँये पैर में केसरी सिंह (हरि) देखकर हरि ने, हरि का, हरि लक्षण प्रसिद्ध किया। (१. हरि = इन्द्र; २. हरि = भगवान; ३. हरि = सिंह। एक देव, एक मनुष्य, एक तिर्यंच) उन सिंहलक्षण युक्त प्रभु को 'वीर' ऐसे मंगल नाम से सम्बोधित करके इन्द्र ने स्तुति की। “अरे, अनन्त गुणसम्पन्न भगवान 'वीर' ऐसे एक ही शब्द से वाच्य कैसे होंगे?" हाँ, जैन शासन के अनेकान्त के बल से वह सम्भव हो सका; क्योंकि एक गुण द्वारा अभेदरूप से अनन्त गुण सम्पन्न – ऐसे पूर्ण गुणी को प्रत्यक्ष किया जा सकता है - ऐसा जैन-शासन के अनेकान्त ज्ञान का ही विशिष्ट सामर्थ्य है।
मेरु पर जन्माभिषेक के पश्चात् प्रभु की शोभायात्रा लेकर इन्द्र वैशालीकुण्डपुर लौटे और माता-पिता को उनका पुत्र सौंपते हुए कहा – हे जगत्पूज्य माताजी ! हे महाराज ! त्रिलोकपूज्य पुत्र को पाकर आप धन्य हुए हैं; वे मोह को जीतने में 'वीर' हैं और धर्मतीर्थ का उद्योत करनेवाले हैं - इसप्रकार स्तुति करके इन्द्र तो माता-पिता का सन्मान कर रहे थे; परन्तु माता त्रिशलादेवी का ध्यान उसमें नहीं था; वे तो बस पुत्र को देखने में तल्लीन थीं। जिसप्रकार स्वानुभूति में प्रथमबार ही चैतन्य का अतीन्द्रियरूप देखकर मुमुक्षु जीव का चित्त अपूर्व आनन्द के वेदन में लग जाता है....उसीप्रकार पुत्र का अद्भुतरूप देखकर त्रिशला माता का चित्त अनुपम आनन्द से तृप्त हो गया। इन्द्र-इन्द्राणी ने ताण्डव नृत्य करके अपना हर्षोल्लास व्यक्त किया। इसप्रकार प्रभु के जन्म कल्याणक का भव्य उत्सव करके देवगण अपने स्वर्गलोक में चले गये; किन्तु कितने ही देव छोटे बच्चे का रूप धारण करके वीर कुँवर के साथ वहीं क्रीड़ा करने हेतु रुक गये। अहा ! तीर्थंकर जैसे बालमित्र के साथ रहना तथा खेलना किसे अच्छा नहीं लगेगा?..वाह ! उसमें तो बड़ा ही आनन्द आयेगा। उन देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए वीर कुँवर को देखकर उनमें देव कौन है और मनुष्य कौन ? उसका पता भी नहीं चलता था; क्योंकि सबका रूप एक जैसा था; परन्तु जब वे देवकुमार